विजय कुमार जी की एक कविता
शब्दों के बाहर था यह सब
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शब्द जब साथ नहीं दे रहे थे
तब भी मैं शब्दों की ओर ही लौटा
जबकि
भाषा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था।
यातनाओं के वे पल
केवल दृश्य थे
केवल दृश्य।
सुबह से शाम तक
देर रात तक केवल दृश्य
तपती धूप , कँकरीली सड़क
टूटी सी चप्पलें
असहनीय भूख
सूनी सूनी आँखें
पाँवों के छाले,
औरतें उनके टूटे हुए शरीर
और वे कितना सह सकती हैं
औरत होने के मायने भी खत्म हुए वहां
मुरझाए हुए बच्चों की रुलाई
वह बच्चा आखिर कितनी देर रो सकता है?
बारह सौ मील का यह फासला
यह कटेगा
कटेगा हाँ कटेगा
कहा उसने दृश्य में
आसमान को देखते
चुप्पियों और
खामोशियों के पार
कहा कुछ उसने
अपने नसीब पर
कल पर
उसके अगले कल पर ।
ज़िन्दगी एक गट्ठर है
नहीं कहा उसने
कहा उसने
सोचने को होगा कुछ
पर अभी तो बस यह धूप है
हवा है
यह आसमान है
सांस है
ज़िंदगी है ।
बूझते रहो तुम मायने इनके
हमारे पास तो बस यह एक ज़िंदगी
और
क्या करें
वो शब्दों में समाती नहीं।
* विजय कुमार जी मुंबई में रहते हैं और अपने ढंग के विरले कवियों में हैं। इन्होंने कविता के हर होड़ से अपने को बाहर रखा और अपनी अनोखी कहन शैली विकसित की। अपनी पीढ़ी के उन कुछ कवियों में शामिल हैं जिनका काव्य वैभव चकित भी करता है आमंत्रित भी। आज जब एक पूरी पीढ़ी पदयात्री हो गई है विजय जी ने उस यातना को अपने रंग में अंतरंगता और संवेदना के संवेग के साथ दर्ज किया है। आप लोग पढ़ें और देखें कि कैसे कविता व्यथा से आगे जा कर औचक अनेक अंधेरों को उजागर करती है।
बोधिसत्व, मुंबई
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