रात चूसती, दिन दुत्कारे
दुख-दर्दों के वारे-न्यारे।
परसों मिली पगार हमें है
और आज जेबें खट्-खाली
चौके की हर चुकती कुप्पी
लगती भारी भरी दुनाली
किल्लत किच-किच में डूबे हैं
अपने दुपहर, साँझ, सकारे।
पिछला ही कितना बाक़ी है
और नहीं देगा पंसारी
सूदखोर से मिलने पर भी
सुनना वही राग-दरबारी
भीतर के कच्चे मकान की
टूट बिखर जाती दीवारें।
मुझको क्या, हम सब को ही ज्वर
चढ़ता बारम्बार मियादी
आँखों में सपने बरसाकर
ओझल हो जाती है खादी
सालों तक की भूख- प्यास के
खा- पी लेते हैं हम नारे।
- शशिकांत गीते
सौजन्य : जय प्रकाश मानस
दुख-दर्दों के वारे-न्यारे।
परसों मिली पगार हमें है
और आज जेबें खट्-खाली
चौके की हर चुकती कुप्पी
लगती भारी भरी दुनाली
किल्लत किच-किच में डूबे हैं
अपने दुपहर, साँझ, सकारे।
पिछला ही कितना बाक़ी है
और नहीं देगा पंसारी
सूदखोर से मिलने पर भी
सुनना वही राग-दरबारी
भीतर के कच्चे मकान की
टूट बिखर जाती दीवारें।
मुझको क्या, हम सब को ही ज्वर
चढ़ता बारम्बार मियादी
आँखों में सपने बरसाकर
ओझल हो जाती है खादी
सालों तक की भूख- प्यास के
खा- पी लेते हैं हम नारे।
- शशिकांत गीते
सौजन्य : जय प्रकाश मानस
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