Sunday, September 11, 2016

इतना मुश्किल भी नहीं है जीना !

महाश्वेता देवी जी की एक बहुत अच्छी कविता
***

आ गए तुम ?
द्वार खुला है अंदर आ जाओ

पर ज़रा ठहरो
दहलीज़ पर पड़े
पॉयदान पर
अपना अहम् झाड़ आना

मधु मालती लिपटी है
मुंडेर से
अपनी नाराज़गी
उस पर उंडेल आना

तुलसी के क्यारे में
मन की चटकन चढ़ा आना

अपनी व्यस्तताएँ
बाहर खूँटी पर टाँग आना

जूतों के साथ अपनी
हर नकारात्मकता
उतार आना

बाहर किलोलते बच्चों से
थोड़ी शरारत माँग लाना

गुलाब के साथ
उगी हैं मुस्कानें
तोड़ कर पहन आना

देखो
शाम बिछाई है मैंने
सूरज क्षितिज पर
बाँधा है
लाली छिड़की है नभ पर

प्रेम और विश्वास की
मद्धम आँच पर
चाय चढ़ाई है

घूँट-घूँट पीना
सुनो
इतना मुश्किल भी
नहीं है जीना ।

न मैं हँसी, न मैं रोयी !

न मैं हँसी, न मैं रोई
बीच चौराहे जा खड़ी होई

न मैं रूठी, न मैं मानी
अपनी चुप से बांधी फाँसी

ये धागा कैसा मैंने काता
न इसने बांधा न इसने उड़ाया

ये सुई कैसी मैंने चुभोई
न इसने सिली न उधेड़ी

ये करवट कैसी मैंने ली
साँस रुकी अब रुकी

ये मैंने कैसी सीवन छेड़ी
आँतें खुल-खुल बाहर आईं

जब न लिखा गया न बूझा
टंगड़ी दे खुद को क्यों दबोचा


ये दुख कैसा मैने पाला
इसमें अंधेरा न उजाला




- गगन गिल

पीठ !


यह एक पीठ है
काली चट्टान की तरह
चौड़ी और मजबूत

इस पर दागी गयीं
अनगिनत सलाखें
इस पर बरसाये गये
हज़ार-हज़ार कोड़े
इस पर ढोया गया
इतिहास का
सबसे ज़्यादा बोझ

यह एक झुकी हुई डाल है
पेड़ की तरह
उठ खड़ी होने को आतुर


- एकांत श्रीवास्तव
सौजन्य : जय प्रकाश मानस

फ़ोटू बचे रहेंगे !

बाढ़ के बीच
उस आदमी की हिम्मत
टँगी है आकाश में
और धरती डूबती जा रही है
पाँव के नीचे
बचाने के लिए
अब उसके पास कुछ नहीं है
सिवाय अपने
वह बचा हुआ है
बचाने को बाढ़
बाढ़ बची रहेगी
तो बाढ़ से घिरे आदमी के
फ़ोटू बचे रहेंगे


- डॉ. श्याम सुंदर दुबे

सौजन्य : जय प्रकाश मानस

और आज जेबें खट्- ख़ाली !

रात चूसती, दिन दुत्कारे
दुख-दर्दों के वारे-न्यारे।

परसों मिली पगार हमें है
और आज जेबें खट्-खाली
चौके की हर चुकती कुप्पी
लगती भारी भरी दुनाली
किल्लत किच-किच में डूबे हैं
अपने दुपहर, साँझ, सकारे।

पिछला ही कितना बाक़ी है
और नहीं देगा पंसारी
सूदखोर से मिलने पर भी
सुनना वही राग-दरबारी
भीतर के कच्चे मकान की
टूट बिखर जाती दीवारें।

मुझको क्या, हम सब को ही ज्वर
चढ़ता बारम्बार मियादी
आँखों में सपने बरसाकर
ओझल हो जाती है खादी
सालों तक की भूख- प्यास के
खा- पी लेते हैं हम नारे।


- शशिकांत गीते


सौजन्य : जय प्रकाश मानस