Thursday, March 3, 2016

एक बार फिर…

जब-
बगैर किसी आंधी के गिरने लगते हैं पेड़
बगैर किसी युद्ध के मरने लगते हैं महारथी
पूरा हो जाता है ब्रह्मा का दिन
सदी हिलने लगती है
यूं ही-
यूं ही मच जाती है चिल्ल-पों
यूं ही पसर जाता है शोर

मनबोध बाबू
आप क्यों शामिल हैं इस गैर ज़रूरी होड़ में
जब कोई आवाज़ साफ़ सुनाई नहीं देती
रास्ता
दिखाई नहीं देता

जैसे अंडों के खुलने तक चुप रहते हैं चूजे
जैसे चूजों के तैयार होने तक नहीं खुलता अंडा
दुनिया में दुनिया से अलग और चुप
घटित होती है एक नई दुनिया

यही वक्त है
जब हमारे और तुम्हारे जैसे लोग
खुद से उधेड़ते हैं एक युद्ध
बुनते हैं सन्नाटा
और नींबू में-
रस की तरह पकने के लिए छोड़ देते हैं

मनबोध बाबू
बहुत कुछ कहने का वक्त यह नहीं है
बहुत कुछ सुनने का वक्त यह नहीं है
किसी भी होड़ में ताबड़ तोड़ शामिल होने का वक्त यह नही है
प्रायश्चित को रूदन से अधिक कारगर ह्गू
सृजन की मुस्कान

थम जाएगी यह चिल्ल-पों
थम जाएगा यह शोर
बज उठेंगे चोंच में चीनी लेकर चींटी के पांव
और चूल्हे पर फूलती रोटी की तरह फूट जाएगी
हम सबकी खामोशी

एक बार फिर रची जाएगी यह दुनिया
एक बार फिर गोल होगी यह पृथ्वी।


साभार :निलय उपाध्याय

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