Thursday, March 3, 2016

अलविदा प्रेमशंकर रघुवंशी जी !

सतपुड़ा जब याद करे, फिर आना
आना जी नर्मदा बुलाए जब
धवल कौंच पंक्ति गीत गाएँ जब
चट्टाने भीतर ही भीतर जब सीझ उठें
आना जब सुबह शाम झरनों पर रीझ उठे
छरहरी वन तुलसी गंधिल आमंत्रण दें
आना, जब झरबेरी लदालद निमंत्रण दें
महुआ की शाखें जब याद करें. फिर आना ।

घुंघची का पानी जब दमक उठे
अंवली की साँस जब गमक उठे
सरपट पगडंडियाँ पुकारें जब
उठ उठकर घाटियां निहारें जब
सागुन जब सतकट संग पाँवड़े बिछाएँ
आना, जब पंख उठा मोर किलकिलाएँ
श्रद्धा नत बेलें जब याद करें, फिर आना ।

अबकी जब आओगे सारे वन चहकेंगे
पर्वत के सतजोडे टेसू से दहकेंगे
बजा बजा सिनसिटियाँ नाच उठेंगे कछार
खनकेंगे वायु के नुपुर स्वर द्वार द्वार
गोखरू, पुआल, घास करमा सी झूमेंगी
वनवासी आशाएँ थिरकन को चूमेगी
बदली की छैया जब याद करें, फिर आना ।


Jayprakash Manas's photo.

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