Monday, March 7, 2016

मछलियाँ !

नये साल में फिर से याद आयी कविता
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एक बार हमारी मछलियों का पानी मैला हो गया था
उस रात घर में साफ़ पानी नहीं था
और सुबह तक सारी मछलियाँ मर गई थीं
हम यह बात भूल चुके थे

एक दिन राखी अपनी कॉपी और पेंसिल देकर
मुझसे बोली
पापा, इस पर मछली बना दो
मैंने उसे छेड़ने के लिए काग़ज़ पर लिख दिया- मछली
कुछ देर राखी उसे गौर से देखती रही
फिर परेशान होकर बोली- यह कैसी मछली !
पापा, इसकी पूँछ कहाँ और सिर कहाँ
मैंने उसे समझाया
यह मछली का म
यह छ, यह उसकी ली
इस तरह लिखा जाता है- म...छ...ली
उसने गम्भीर होकर कहा- अच्छा ! तो जहाँ लिखा है मछली
वहाँ पानी भी लिख दो

तभी उसकी माँ ने पुकारा तो वह दौड़कर जाने लगी
लेकिन अचानक मुड़ी और दूर से चिल्लाकर बोली-
साफ़ पानी लिखना, पापा !


प्रस्तुति - नरेश सक्सेना

साभार - जयप्रकाश मानस

नए जूते की महक और मेरा क़द !

पता नहीं क्यों
अक्सर जी करता है
याद करूँ
बचपन के उस क्षण को
काका ने लिवाया था मुझे
एक नया जूता का जोड़ा ।

नए जूते की महक को
पहली बार जाना था
काला जूता, चमकीला
पूरे मन को भा गया था
काका की हामी ने मेरा दिल भर दिया था

जैसे मेरे लिए ही बना था यह जूता
क्यूँ न याद करूँ उस क्षण को
पहली बार तो हो रहा था मैं
ज़मीन से थोड़ा ऊपर
जब मैं पहन कर जूता
पहली बार खड़ा हुआ था
ज़मीन पर

सब के सब क्षण भर में
थोड़े छोटे लगने लगे थे
झेंप गया था काका को देखकर मैं
भाँप लिया था काका ने इसे
कैसा है?
थोड़ा चलकर भी देखो
कहा था तत्काल ।


प्रस्तुति- संजीव बख्शी

साभार- जयप्रकाश मानस

जो पिता होते हैं ।

चाहे हाड़ तोड़कर - चाहे हाथ जोड़कर
सबसे अंतिम में पाँव पकड़कर
इन सबसे पहले गुल्लक फोड़कर
ले ही आते हैं अनाज पीठ लादकर
सबसे मनहूस - अंधेरी गलियों में
दिन ढ़लने से पहले
जो पिता होते हैं

जो पिता होते हैं
वे कभी नहीं थकते
पालनहार देवता, उनके पिता ईश्वर
थक हार भले मुँह छुपा लें
वे कभी नहीं छुपते
चलते रहते हैं हरदम - गलते रहते हैं हरपल
भूल से भी कभी नहीं थमते ।

सबके सब भीतर थे तब !

हमारे भीतर होता था खिलखिलाता मन
मन के बहुत भीतर सबसे बतियाता घर

घर के भीतर उजियर-उजियर गाँव
गाँव के भीतर मदमाते खेत

खेत के भीतर बीज को समझाती माटी
माटी के भीतर सुस्ताते मज़ूर और सिर-पाँव

पाँव के भीतर सरसों, गेहूँ, धान की बालियाँ
बालियों के भीतर रंभाती गाय

गाय के भीतर हंकड़ते बछड़े
बछड़े के भीतर कम-से-कम एक जोड़ी बैल

बैल के भीतर हरी-भरी घास
घास के भीतर मोती-सी चमकती ओस

ओस के भीतर जीवन का पानी
पानी के भीतर घड़ा, कौआ, कंकड़ की कहानी

कहानी के भीतर हम सबका मन
मन के भीतर अब्बा, अम्मा, दादी, पड़ोस

पड़ोस के भीतर लकरी, नमक, आग, संतोष
इन सबके बहुत भीतर जीवन का जोश

सबके सब भीतर थे जब
सबका बाहर भीतर था तब

अब सब बाहर-ही-बाहर
कहाँ से भरे गागर में सागर ?


प्रस्तुति - जयप्रकाश मानस

दरअसल ।

जल बचा था
दिखना बचा हुआ था
कहीं-न-कहीं
कम-से-कम कोई तालाब

तालाब बचा था
दिखना बचा हुआ था
कभी-न-कभी
कम-से-कम कोई घाट

घाट बचा था
दिखना बचा हुआ था
कुछ-न-कुछ
कम-से-कम कोई चित्र

चित्र बचा था
दिखना बचना हुआ था
कैसे-न-कैसे
कम-से-कम कोई मित्र

एक दिन जब मित्र न बचा था
न दिखना बचा हुआ था
चित्र
घाट
तालाब
जल
न आज न कल

दरअसल ।

प्रस्तुति - जयप्रकाश मानस

Thursday, March 3, 2016

काव्य पाठ सूरज का !

कुहरे की चादर को
भूरी एक चिड़िया ने
नोकदार चोंच से
काटा पहले,
फिर चीरती चली गई
दूर आसमान से

सूरज ने
अचानक अपना ररक्तवर्णी चेहरा
उठाया आसमान में

लड़ते हुए कुहरे से
नदी ने
खुली बाँहों में
भर लिया सूरज को

फिर सूरज
चिड़िया से,
नदी से,
काव्य पाठ करता रहा
मैंने सिर्फ़ सूरज का काव्य पाठ दुहराया
देर तक ।


- विष्णुचन्द्र शर्मा

दिन गिनती के ।

जिन पेड़ों पर बैठे बगुले
उन पेड़ों के दिन गिनती के।

कैसे-कैसे लोग पालते
कैसी-कैसी आकांक्षाएँ
एक-एक कर टूट रही हैं
इंद्रधनुष की प्रत्यंचाएँ
जिन नातों के नेह अचीन्हे
उन नातों के दिन गिनती के।

फसलें उजड़ गईं खेतों की
घर-आँगन छाया सन्नाटा
गाय बेच,गिरवी जमीन रख
हरखू तीर्थाटन से लौटा
जिस बामी के साँप पहरुए
उस बामी के दिन गिनती के।

प्रतिभा को दरसाए जबतक
लोकतंत्र फाँसी के फंदे
ढाबे पर बर्तन माँजेंगे
तबतक सूर्यवंश के बंदे
जिस कुर्सी पर दीमक रीझे
उस कुर्सी के दिन गिनती के ।


- डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

अलविदा प्रेमशंकर रघुवंशी जी !

सतपुड़ा जब याद करे, फिर आना
आना जी नर्मदा बुलाए जब
धवल कौंच पंक्ति गीत गाएँ जब
चट्टाने भीतर ही भीतर जब सीझ उठें
आना जब सुबह शाम झरनों पर रीझ उठे
छरहरी वन तुलसी गंधिल आमंत्रण दें
आना, जब झरबेरी लदालद निमंत्रण दें
महुआ की शाखें जब याद करें. फिर आना ।

घुंघची का पानी जब दमक उठे
अंवली की साँस जब गमक उठे
सरपट पगडंडियाँ पुकारें जब
उठ उठकर घाटियां निहारें जब
सागुन जब सतकट संग पाँवड़े बिछाएँ
आना, जब पंख उठा मोर किलकिलाएँ
श्रद्धा नत बेलें जब याद करें, फिर आना ।

अबकी जब आओगे सारे वन चहकेंगे
पर्वत के सतजोडे टेसू से दहकेंगे
बजा बजा सिनसिटियाँ नाच उठेंगे कछार
खनकेंगे वायु के नुपुर स्वर द्वार द्वार
गोखरू, पुआल, घास करमा सी झूमेंगी
वनवासी आशाएँ थिरकन को चूमेगी
बदली की छैया जब याद करें, फिर आना ।


Jayprakash Manas's photo.

करे वही सुनवाई !

मैं कुछ झूठा, वह कुछ सच्चा
ना मैं पूरा झूठा
ना वह पूरा सच्चा

मैंने चाहा पर हो न सका पूरा-पूरा झूठा
उसने चाहा पर हो न सका पूरा-पूरा सच्चा

कुछ झूठा हूँ मैं
मतलब कुछ मुझमें भी सच्चाई
कुछ सच्चा है वह
मतलब कुछ उसमें भी झूठाई

हम दोनों ही करते हैं
हर पल - हर क्षण - हरदम लड़ाई
करे कोई अगवाई
पूरा सच, पूरा झूठ क्या होता - कहाँ होता
नहीं होता तो क्योंकर वह नहीं होता

करे वही सुनवाई
जो पूरा-पूरा हो झूठा
या पूरा-पूरा सच्चा
मिल जाये तो पता बता दें ढूँढ रहे हम भाई !

ज़रूरी है ख़ून !

ज़मीन पर जो दिख रहा है
ख़ून नहीं
ख़ून का धब्बा है
ख़ून तो सोख लिया है
ज़मीन ने

शरीर पर जो दिख रहा है
जख़्म है
दर्द तो सोख लिया है
शरीर ने

कुछ ही दिनों में
ख़ून के धब्बे पर
जम जाएगी धूल की परत
धीरे-धीरे फिर मिट जाएगा
जख़्म का निशान भी

कोई आँख नहीं देख पाएगी
दिल के जख़्म को
ज़मीन नहीं सोख पाएगी
ताउम्र दिल से रिसते ख़ून को

पर राजनीति के लिए
ज़रूरी है ख़ून
ज़रूरी है ख़ून की क़ीमन । 


- रोहित कौशिक ( शिल्पायन से प्रकाशित संग्रह 'इस खंडित समय में' से )

रखा इतना ही !

चावल के दो दाने संग
चुटकी भर नमक रखा

फटे जूते, दूरिहा मंजिल
पाँवों की धमक रखा

तन सूखा, धन भी सूखा
मन अविकल धमक रखा

काँटे मीत, प्रीत और रीत
मुरझाने के पहले गमक रखा

रख सकता था महल अटारी, नहीं रखा
रख सकता था कृपाण कटारी, नहीं रखा
रख सकता था सोन थारी, कहाँ रखा
रख सकता था सोलह तरकारी, कहाँ रखा

रखा इतना ही -
कि रहा रहने जैसा
कहा उतना ही -
कि कहा कहने जैसा

ढहा जितना
थहा उतना
ढहते-ढहते
थहते-थहते
बहुत ही कम रहा
बहुत कम रहा
मतलब बहुत ही नम रहा ।


साभार : जयप्रकाश मानस

पराजय का अर्थ !

पराजय का अर्थ विजय है
यह कौन जानता है मुझ से अधिक

जो सबसे बुरा
सबसे अधिक सुन्दर है
इसे कौन जान सकता है सिवाय मेरे

जो डूबते हैं, जानते हैं वे ही
उस ज़मीन का पता
जिसमें छुपा है आनन्द जीवन का

मैं तो हूँ पराजय का मित्र
लोग इसे अनुभव कहते हैं बस


- लीलाधर मंडलोई 

एक बार फिर…

जब-
बगैर किसी आंधी के गिरने लगते हैं पेड़
बगैर किसी युद्ध के मरने लगते हैं महारथी
पूरा हो जाता है ब्रह्मा का दिन
सदी हिलने लगती है
यूं ही-
यूं ही मच जाती है चिल्ल-पों
यूं ही पसर जाता है शोर

मनबोध बाबू
आप क्यों शामिल हैं इस गैर ज़रूरी होड़ में
जब कोई आवाज़ साफ़ सुनाई नहीं देती
रास्ता
दिखाई नहीं देता

जैसे अंडों के खुलने तक चुप रहते हैं चूजे
जैसे चूजों के तैयार होने तक नहीं खुलता अंडा
दुनिया में दुनिया से अलग और चुप
घटित होती है एक नई दुनिया

यही वक्त है
जब हमारे और तुम्हारे जैसे लोग
खुद से उधेड़ते हैं एक युद्ध
बुनते हैं सन्नाटा
और नींबू में-
रस की तरह पकने के लिए छोड़ देते हैं

मनबोध बाबू
बहुत कुछ कहने का वक्त यह नहीं है
बहुत कुछ सुनने का वक्त यह नहीं है
किसी भी होड़ में ताबड़ तोड़ शामिल होने का वक्त यह नही है
प्रायश्चित को रूदन से अधिक कारगर ह्गू
सृजन की मुस्कान

थम जाएगी यह चिल्ल-पों
थम जाएगा यह शोर
बज उठेंगे चोंच में चीनी लेकर चींटी के पांव
और चूल्हे पर फूलती रोटी की तरह फूट जाएगी
हम सबकी खामोशी

एक बार फिर रची जाएगी यह दुनिया
एक बार फिर गोल होगी यह पृथ्वी।


साभार :निलय उपाध्याय

सुसंस्कृति ने की किताबों पर चर्चा ।

इलाहाबाद के निराला सभागार में लगे पुस्तक मेलाके समापन अवसर पर इलाहाबाद कीे जानी मानी समाजसेवी संस्था सुसंस्कृति ने समाज में किताबों के हालात का जायज़ा लेने के विनम्र प्रयास के तहत बुद्धिजीवियों के सानिध्य में एक संगोष्ठी का आयोजन किया । इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वाइसचांस्लर के. बी. पांडेय ने की । इस अवसर पर डाक्टर दयानंद मिश्र, प्रधानाचार्या डाक्टर शारदा पाण्डेय और अजामिल विशिष्ठ अतिथि रहे । संगोष्ठी में अनेक विषयों पर चर्चा हुई और सभी ने दुनिया को बनाये रखने के लिए किताबों की ज़रूरत और महत्व को स्वीकार किया
 
रिपोर्ट : अजामिल 

 

नहीं रहे हमारे पवन दीवान !

उनकी कविता सुनने लोग कई कोस दूर से पैदल चलकर आते थे और रात-रात भर उन्हें और-और कहकर कविता का रसपान करते थे । हिन्दी और छत्तीसगढ़ी कविता की क्लासिकता को मंच में भी जिस तरह उन्होंने संभाले रखा वह अप्रतिम है । संत होकर भी राजनीति में मंत्री पद तक पहुँचने वाले जनप्रिय संत कवि पवन दीवान का वह हँसता खिलखिलाता हुआ चेहरा अब हमें कभी नहीं दिखाई देगा ।
सृजनगाथा डाॅट काॅम परिवार उन्हें सदैव याद रखेगा !