थी एक कली निद्र-निमग्न
एक स्वर्णिम स्वप्न सजाकर
प्रिय मधुप वियोग मिलन का
इतिवृत्त आज दुहराकर।
प्रिय के वियोग में पागल
जाने कैसे सोती थी?
जिन में ही उलझ-सुलझ कर
सुख-दुःख मग्न होती थी।
जब मन्द सुगन्ध समीरण
प्रातः बेला में डोला,
स्वप्निल वंकिम नयनों को
कालिका ने सत्वर खोला।
उसके मधुमय सौरभ को
मलयज ने तुरत बिखेरा
अपनी मीठी तानों से
उसने मधुकर को प्रेरा।
- जय नाथ प्रसाद (सात्विक)
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