Thursday, January 24, 2013
मन की दीवार !
वाल का भी बड़ा अह्म अब
पहले तो एक ही वाल थी
चीन की दीवार ..."चाइना वाल "
अब हर एक को हांसिल है
क्या फुद्दू , क्या शोरबा ....
भांति -भातिं की वाल
कुछ शीशे की ,कुछ पत्थर की
कुछ नीची भी कुछ आसमान से ऊँचीं भी
किसी वाल पर ताले अलीगढ़ के जड़े
कोई वाल बस मुक्त जेल सी
एक वाल पर तो लिखा भी था ...
"यहाँ पेशाब करना मना है "
एक पर लिखा कि "इश्तिहार चिपकाना मना है "
एक पर ये भी लिखा था .....
देखो ...."यहाँ गधा मूत रहा है ..."
एक वाल बहुत छोटी सी दिखी ..
अपनी सी ,मैं कूद गया उसपर
बचपन में दीवारें कहाँ रोक पायीं मेरी उमंग
छतों से दूसरी ...फिर तीसरी फिर चौथी भी
अगर गिनू तो पांचवीं और छठवी भी
न जाने कितनी दीवारें फलांगी मैंने
जीने की चाह लिए उतरा भी
न जाने कितने जीनें ..
बहुत बार ऐसा हुआ कि सवाल ये हुआ "अरे तुम ?"
तब शिकायत नहीं होती थी मनों में
वहीँ खाया ,फैलाया और जी भी लिया
अब ऐसी वालें नहीं होती हैं ..
ये अम्बुजा सीमेंट की है वाल
लगाओ कितना भी जोर
नहीं टूटने वाली ..
अब दीवालें मनों में जो खड़ी होती हैं ....
- राघुवेन्द्र अवस्थी
हरी की पूंजी बहूत है !
मगन भया संसार में - माया चारों ओर
ढूंढत ढूंढत मर गए - मिला ना दूजा छोर |
साधू को सोहे नहीं - चूल्हा तवा परात
हरी की पूंजी बहूत है - वोही जाएगी साथ |
सुख का भी क्या भोगना - कहें फकीरी बात
जितना लम्बा दिन भया - उससे लम्बी रात |
मरना पक्का है मगर , जीने की कर बात
आएगी जब आएगी - फिर क्यों देखे बाट |
नहीं रहना संसार में - अब क्या सोचो नाथ
बिनती मेरी मान ले - ले चल अपने साथ |
- सतीश शर्मा
आखिर ये क्यों होता है |
गान्धी से जिन्ना ने जो भी मांगा वो सम्मान दिया |
भारत माता का बटवारा सहकर पाकिस्तान दिया ||
लेकिन चन्द महीनों मे ही तुम औकात दिखा बैठे |
काश्मीर पर हमला करके अपनी जात दिखा बैठे ||
नेहरु गाँधी की एक भूल का ये अन्जाम हुआ देखो |
साँप गले मे पडा हुआ है ये परिणाम हुआ देखो ||
हमने ढाका जीता भारत का झन्डा गङ सकता था |
दर्रा हाजी पीर जीतकर भी भारत अङ सकता था ||
लेकिन हम तो ताशकंद के समझौते मे छले गये |
और हमारे लाल बहादुर इस दुनिया से चले गये ||
पाक धरा से मिट ही जाता मौक़े टाल दिए हमने |
लाखों कैदी भुट्टो की झोली मे डाल दिए हमने ||
हम एटमी ताकत होकर भी भी लाहौर गये बस मे |
हमने शिमला समझौते की कभी नही तोडी कसमे ||
फिर भी बार- बार हमलों से भारत घायल होता है |
मै दिल्ली से पूछ रही हूँ आखिर ये क्यों होता है ||
उत्तर कहीं नही मिलता है शर्मसार हो जाता हूँ |
इसी लिए मै कविता को हथियार बनाकर गाती हूँ ||
- सूजाता पाटिल, मुम्बई पुलिस इंस्पेक्टर
माँ का चंदा !
सारी सारी रात बेचैन से -
नन्हे टिमटिम करते तारे
माँ और ममता की तलाश में -
आकाश में मंडराते घूमते हैं .
और सुबह होते होते - किसी
ममता भरी माँ का सूना
आँचल देख - उसमे समां जाते हैं .
बच्चे बन उसके घर आ जाते हैं .
और नन्हे तारे से - बन जाते हैं
उसके लाडले चंदा - सूरज .
हर रात ये खेल - आज भी
अबाध गति से - गुपचुप चलता है .
हर तारा - किसी माँ का
चंदा सूरज बनने -रात को
आकाश में निकलता है .
- सतीश शर्मा
Friday, January 4, 2013
इनको भी, उनको भी, उनको भी !
तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है--
इनको भी, उनको भी, उनको भी !
दोस्त है, दुश्मन है
ख़ास है, कामन है
छाँटो भी, मीजो भी, धुनको भी
लँगड़ा सवार क्या
बनना अचार क्या
सनको भी, अकड़ो भी, तुनको भी
चुप-चुप तो मौत है
पीप है, कठौत है
बमको भी, खाँसो भी, खुनको भी
तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है
इनको भी, उनको भी, उनको भी !
- नागार्जुन
(1978 में रचित)
चांद का कुर्ता !
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने ‘अरे सलोने’
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दूँ एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आये!
- रामधारी सिंह ”दिनकर
Wednesday, January 2, 2013
प्रियतम का पथ आलोकित कर !
मधुर मधुर मेरे दीपक जल !
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर !
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु अणु गल !
पुलक पुलक मेरे दीपक जल !
सारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण
विश्व-शलभ सिर धुन कहता 'मैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल' !
सिहर सिहर मेरे दीपक जल !
जलते नभ में देख असंख्यक,
स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता,
विद्युत ले घिरता है बादल !
विहँस विहँस मेरे दीपक जल !
द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बन्दी है तापों की हलचल !
बिखर बिखर मेरे दीपक जल !
मेरी निश्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर
मैं अँचल की ओट किये हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल !
सहज सहज मेरे दीपक जल !
सीमा ही लघुता का बंधन,
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन;
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझ में भरती हूँ आँसू जल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !
तम असीम तेरा प्रकाश चिर,
खेलेंगे नव खेल निरंतर;
तम के अणु अणु में विद्युत सा
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !
तू जल जल जितना होता क्षय,
वह समीप आता छलनामय;
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल खिल !
मदिर मदिर मेरे दीपक जल !
प्रियतम का पथ आलोकित कर !
- महादेवी वर्मा
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर !
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु अणु गल !
पुलक पुलक मेरे दीपक जल !
सारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण
विश्व-शलभ सिर धुन कहता 'मैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल' !
सिहर सिहर मेरे दीपक जल !
जलते नभ में देख असंख्यक,
स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता,
विद्युत ले घिरता है बादल !
विहँस विहँस मेरे दीपक जल !
द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बन्दी है तापों की हलचल !
बिखर बिखर मेरे दीपक जल !
मेरी निश्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर
मैं अँचल की ओट किये हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल !
सहज सहज मेरे दीपक जल !
सीमा ही लघुता का बंधन,
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन;
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझ में भरती हूँ आँसू जल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !
तम असीम तेरा प्रकाश चिर,
खेलेंगे नव खेल निरंतर;
तम के अणु अणु में विद्युत सा
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !
तू जल जल जितना होता क्षय,
वह समीप आता छलनामय;
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल खिल !
मदिर मदिर मेरे दीपक जल !
प्रियतम का पथ आलोकित कर !
- महादेवी वर्मा
Tuesday, January 1, 2013
नव वर्ष के लिए !
कैसी निःशब्दता के साथ अंततः
प्रकट होते हो तुम घाटी में
तुम्हारे सूर्य की पहली रश्मि होती है
अवतरित छूने के लिए कुछ
ऊँचे पत्तों को जिनमें नहीं है कोई हलचल
मानो उन्होंने दिया ही न हो ध्यान
और तुम्हें बिलकुल ही न जानते हों
फिर उठता है एक कबूतर का स्वर
कहीं दूर से स्वयं में मग्न
जो पुकारता है भोर की नीरवता को
तो यह है स्वर तुम्हारे
यहाँ और इस पल होने का
चाहे कोई इसे सुन पाए न सुन पाए
यह है वह स्थान जहाँ हम पहुँच चुके हैं
अपने युग के साथ अपने ज्ञान के साथ
जैसा भी वह है
और अपनी आशाओं के साथ
जैसी भी वे हैं
हमारे सामने अदृश्य
अछूती और अभी भी संभव
-- डब्ल्यू एस मर्विन
डब्ल्यू एस मर्विन ( W S Merwin )अमरीकी कवि हैं व इन दिनों अमरीका के पोएट लॉरीअट भी हैं.उनकी कविताओं, अनुवादों व लेखों के 30 से अधिक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं .उन्होंने दूसरी भाषाओँ के प्रमुख कवियों के संकलन, अंग्रेजी में खूब अनूदित किये हैं, व अपनी कविताओं का भी स्वयं ही दूसरी भाषाओँ में अनुवाद किया है.अपनी कविताओं के लिए उन्हें अन्य सम्मानों सहित पुलित्ज़र प्राइज़ भी मिल चुका है.वे अधिकतर बिना विराम आदि चिन्हों के मुक्त छंद में कविता लिखते हैं.यह कविता उनके संकलन 'प्रेजेंट कंपनी' से है..
इस कविता का मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़
प्रकट होते हो तुम घाटी में
तुम्हारे सूर्य की पहली रश्मि होती है
अवतरित छूने के लिए कुछ
ऊँचे पत्तों को जिनमें नहीं है कोई हलचल
मानो उन्होंने दिया ही न हो ध्यान
और तुम्हें बिलकुल ही न जानते हों
फिर उठता है एक कबूतर का स्वर
कहीं दूर से स्वयं में मग्न
जो पुकारता है भोर की नीरवता को
तो यह है स्वर तुम्हारे
यहाँ और इस पल होने का
चाहे कोई इसे सुन पाए न सुन पाए
यह है वह स्थान जहाँ हम पहुँच चुके हैं
अपने युग के साथ अपने ज्ञान के साथ
जैसा भी वह है
और अपनी आशाओं के साथ
जैसी भी वे हैं
हमारे सामने अदृश्य
अछूती और अभी भी संभव
-- डब्ल्यू एस मर्विन
डब्ल्यू एस मर्विन ( W S Merwin )अमरीकी कवि हैं व इन दिनों अमरीका के पोएट लॉरीअट भी हैं.उनकी कविताओं, अनुवादों व लेखों के 30 से अधिक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं .उन्होंने दूसरी भाषाओँ के प्रमुख कवियों के संकलन, अंग्रेजी में खूब अनूदित किये हैं, व अपनी कविताओं का भी स्वयं ही दूसरी भाषाओँ में अनुवाद किया है.अपनी कविताओं के लिए उन्हें अन्य सम्मानों सहित पुलित्ज़र प्राइज़ भी मिल चुका है.वे अधिकतर बिना विराम आदि चिन्हों के मुक्त छंद में कविता लिखते हैं.यह कविता उनके संकलन 'प्रेजेंट कंपनी' से है..
इस कविता का मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़
साभार :- http://anoodit.blogspot.in/
दामिनी के लिये श्रृद्धांजलियां !
क्यों कि मर चुका हूं बेटी लोग कहते हैं मैं आज़ाद हूं
http://sanskaardhani.blogspot.in/2012/12/blog-post_28.htmlमेरी झोली में !
मेरी झोली में
सपने ही सपने भरे
ले-ले आ कर वही
जिसका भी जी
करे.
एक सपना है
फूलों की बस्ती का
एक सपना है
बस मौज मस्ती
का,
मुफ्त की चीज है
फिर कोई क्यों डरे?
एक सपना है
रिमझिम फुहारों
का
एक सपना है
झिलमिल सितारों का
एक सपना जो
भूखे का पेट भरे.
ले-ले
आ कर वही
जिसका भी जी करे.
- रमेश तैलंग ( वरिष्ठ बाल-साहित्यकार)
साभार :- http://balduniya.blogspot.in/
नव वर्ष कौन ?
आज नव वर्ष की धूम मची है|कृष्ण पक्ष है
|शीतलता भी अपनी चंचलता इठलाते हुए प्रदर्शित कर रही है |आगे चैत्र शुक्ल
पक्ष की पतिपदा से हम भारतीयों का नव वर्ष आता है | वस्तुतः इन दोनों में किसको नव वर्ष मानें , केवल अपनी अपनी मान्यताओं के आधार पर या कोई प्रबल प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर ?
आज पाश्चात्य जगत के इस नव वर्ष में मान्यताओं के अतिरिक्त कोई ऐसा
प्रमाण या प्रकृति का समर्थन इसे नहीं प्राप्त है जिससे इसे नव वर्ष कहा जा
सके | हाँ हमारे भारत वर्ष में जो नव वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मनाया जाता है ,उसका स्वागत स्वयं प्रकृति करती है |
उस समय भारत का प्रत्येक व्यक्ति देख सकता है की वृक्ष स्वयं पतझड़
बीत जाने के कारण नूतन पत्ते धारण करते हैं |नयी नयी कोपलें मानों हमारे नव
वर्ष के स्वागत हेतु खिलखिलाकर हंसती हुई उसका स्वागत करने को इठला रही
हों |
जबकि इस पाश्चात्य नव वर्ष में ऐसा कुछ भी नहीं होता |हाँ इसका आरम्भ नृत्य नाटक नाना प्रकार के विलासिता पूर्ण संसाधनों से होता है | विदेशों की स्थिति तो बड़ी ही विचित्र है|वहां क्या क्या होता है ---इसका वर्णन हम नहीं कर सकते | इस नव वर्ष के मूल में हमें क्या देखने को मिलता है --मात्र दृश्य या अदृश्य रूप में "वासना " | जबकि हमारे नव वर्ष का शुभारम्भ उपासना से होता है | भारत के नगर ही नहीं अपितु गाँव -गाँव में नवरात्र के उपलक्ष में मानस का नवाह्न परायण , चंडी पाठ आदि विभिन्न धार्मिक आयोजन एवं साधकों की साधना आरम्भ होती है |
हमारे नव वर्ष का प्रकृति द्वारा स्वागत किया जाना अर्थात नूतन पत्तों कोपलों को धारण करके प्रकृति मानों इस तथ्य का डिमडिम घोष कर रही हो कि भारतवासियों जागो ,आँख खोलकर देखो कि वस्तुतः नव वर्ष कौन है ? जिसका मैं स्वागत कर रही हूँ ,वह है नव वर्ष ? या पाश्चात्यों का कपोल कल्पित नव वर्ष जिसमे मुझमे कोई नूतनता नहीं आती अथवा जिसका मैं कोई स्वागत नहीं करती | कौन है नव वर्ष ? जिसके आरम्भ में विलासिता और वासना है वह ? या जिसके आरम्भ में धार्मिकता और उपासना है वह ?
विलासिता और वासना से नव जीवन का आरम्भ होता है या पतन ? उत्तर मिलेगा --पतन | विलासिता के कीड़े अनेक सम्राट पतन के गर्त में गिरे --इतिहास इसका साक्षी है |चाहे वे रावण की श्रेणी के हों या स्वयं रावण अथवा विलासी कोई मुग़ल शासक | किन्तु धार्मिकता और उपासना से नवजीवन का आरम्भ ही होता है , पतन नहीं |अत एव घास की रोटियाँ खाकर परम धार्मिक भगवान एकलिंग के उपासक महाराणा प्रताप सिंह ने देश को नवजीवन दिया , पतन के गर्त में गिरने से बचाया | इस विवेचन से सुनिश्चित हुआ की नव वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही होता है ,आज जनवरी के आरम्भ से नहीं |
- आचार्य सियारामदास नैयायिक
सौ० सुचिता मिश्रा
जबकि इस पाश्चात्य नव वर्ष में ऐसा कुछ भी नहीं होता |हाँ इसका आरम्भ नृत्य नाटक नाना प्रकार के विलासिता पूर्ण संसाधनों से होता है | विदेशों की स्थिति तो बड़ी ही विचित्र है|वहां क्या क्या होता है ---इसका वर्णन हम नहीं कर सकते | इस नव वर्ष के मूल में हमें क्या देखने को मिलता है --मात्र दृश्य या अदृश्य रूप में "वासना " | जबकि हमारे नव वर्ष का शुभारम्भ उपासना से होता है | भारत के नगर ही नहीं अपितु गाँव -गाँव में नवरात्र के उपलक्ष में मानस का नवाह्न परायण , चंडी पाठ आदि विभिन्न धार्मिक आयोजन एवं साधकों की साधना आरम्भ होती है |
हमारे नव वर्ष का प्रकृति द्वारा स्वागत किया जाना अर्थात नूतन पत्तों कोपलों को धारण करके प्रकृति मानों इस तथ्य का डिमडिम घोष कर रही हो कि भारतवासियों जागो ,आँख खोलकर देखो कि वस्तुतः नव वर्ष कौन है ? जिसका मैं स्वागत कर रही हूँ ,वह है नव वर्ष ? या पाश्चात्यों का कपोल कल्पित नव वर्ष जिसमे मुझमे कोई नूतनता नहीं आती अथवा जिसका मैं कोई स्वागत नहीं करती | कौन है नव वर्ष ? जिसके आरम्भ में विलासिता और वासना है वह ? या जिसके आरम्भ में धार्मिकता और उपासना है वह ?
विलासिता और वासना से नव जीवन का आरम्भ होता है या पतन ? उत्तर मिलेगा --पतन | विलासिता के कीड़े अनेक सम्राट पतन के गर्त में गिरे --इतिहास इसका साक्षी है |चाहे वे रावण की श्रेणी के हों या स्वयं रावण अथवा विलासी कोई मुग़ल शासक | किन्तु धार्मिकता और उपासना से नवजीवन का आरम्भ ही होता है , पतन नहीं |अत एव घास की रोटियाँ खाकर परम धार्मिक भगवान एकलिंग के उपासक महाराणा प्रताप सिंह ने देश को नवजीवन दिया , पतन के गर्त में गिरने से बचाया | इस विवेचन से सुनिश्चित हुआ की नव वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से ही होता है ,आज जनवरी के आरम्भ से नहीं |
- आचार्य सियारामदास नैयायिक
सौ० सुचिता मिश्रा
दिल जैसे कह उठता है !
तुम्हारी खूबसूरती में चार चाँद लग जाते हैं -
जब तुम नहा के जुल्फे झटकते हुए खिड़की पे आती हो ,
मै बेखबर सा निहारता हूँ -
उस चाँद से सलोने चेहरे को .
एक पल के लिए भूल जाता हूँ सब कुछ ,
ऐसा लगता है जैसे सुबह- ऒस की
नन्ही - नन्ही बूंदों से नहा के निकली हो ,
जब तुम सरमा के मुझे देखती हो ,
और नजरे झुका कर मुस्करा के जाने लगती हो,
दिल सिहर सा उठता है ,
रोम रोम में आग सी लगती है ,
तुम्हारे उस सरमाने को क्या कहूँ ,
जैसे चाँद शरमा के बादल में छुपता हो ,
दिल एक बार फिर से बेचैन होता है तुम्हे देखने के लिए ,
अंतर्मन में एक तस्वीर -हमेशा छुपा रखी है मैंने तुम्हारी ,
दिन भर में ना जाने कितनी बार
उस खिड़की की तरफ देखता हूँ -
वो सूनी खिड़की भी अच्छी लगती है .
कम से कम तुम्हारे आने का आस तो दिलाती है ,
फिर तुम्हारा इंतजार ऐसे करता हूँ
जैसे कोई उल्लू रात के आने का इंतजार करता हो ,
और शाम को जब तुम आती हो
आँखों से आँखे मिलाती हो ,
दिल जैसे कह उठता है तुम्हारा ही इंतजार था ,
अब आये हो कभी मत जाना ,
भले ही थोड़े दूर हो , पास आना ,
और इस पागल को अपना बनाना .....................
-वीरेश मिश्र
अपनी मनमानी बहूत हुई !
ये नो दो ग्यारह हुआ बहूत
अब तेरा तेरा कह प्यारे
अपनी मनमानी बहूत हुई
अब 'उसकी' रजा में रह प्यारे .
दिल की बातें दिल में ना रख
जो दिल में है तू कह प्यारे
जो बात चुभ रही है दिल में
तू उसको पहले कह प्यारे .
जो बुरा बहूत है तू उसको
मत भला बुरा तो कह प्यारे
वो अपनी हद में रहता है
तू अपनी हद में रह प्यारे .
फिर बात बनेगी धीरज धर
दिल्ली के दिल में रह प्यारे
भारत वालों की बात और
इंडिया को भारत कह प्यारे .
आये अंग्रेज गए सारे -
ना इटली में तू रह प्यारे -
भारत तो अपना भारत है -
बेख़ौफ़ यहाँ तू रह प्यारे !
- सतीश शर्मा
एक फूल अमन के लिए !
नये साल की पहली सुबह तुम्हें क्या दूं मैं ?
एक फूल अमन के लिए,
एक बन्दूक आज़ादी के लिए,
एक किताब संग-साथ के लिए ?
तुम्हारी आंखों के लिए नयी चमक ?
तुम्हारे ख़ून के लिए नयी गरमी,
तुम्हारे प्रेम के लिए नयी नरमी,
दिल के लिए नयी आशा, संघर्ष के लिए नयी भाषा ?
नये वर्ष में दूर हों ग़म,
नये वर्ष में मिटें सितम,
नये वर्ष में दुख हों कम,
सिर झुकें नहीं, बांहें थकें नहीं,
टूटें सभी बेड़ियां, मिले नया दम.
-कवि नीलाभ
एक फूल अमन के लिए,
एक बन्दूक आज़ादी के लिए,
एक किताब संग-साथ के लिए ?
तुम्हारी आंखों के लिए नयी चमक ?
तुम्हारे ख़ून के लिए नयी गरमी,
तुम्हारे प्रेम के लिए नयी नरमी,
दिल के लिए नयी आशा, संघर्ष के लिए नयी भाषा ?
नये वर्ष में दूर हों ग़म,
नये वर्ष में मिटें सितम,
नये वर्ष में दुख हों कम,
सिर झुकें नहीं, बांहें थकें नहीं,
टूटें सभी बेड़ियां, मिले नया दम.
-कवि नीलाभ
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