मै बहता रहा !
पानी की सतह पे एक नाव मैंने भी चलाई थी
हा वही कागज़ की नाव
बचपन में खेलते हुए
आशा था बहुत दूर जाएगी
अब गुज़रे गए ज़माने
मै बह के कही और आ गया
पता नही उसको कोई साहिल भी मिला
या डूब गई वो ..................
मै तो बह बह के
न जाने कितने किनारों पे ठोकरें खायी
फिर भी बहता रहा ,सहता रहा
सिलवटे भी पड़ी
थोड़ी सी मुस्कान भी नसीब हुई
और मै बहता रहा सहता रहा ......
-वीरेश मिश्र
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