जितेन्द्र श्रीवास्तव का
जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की रूद्रपुर तहसील के सिलहटा में हुआ. जे. एन
यू नयी दिल्ली से हिन्दी साहित्य में सर्वोच्च अंकों से एम. ए. और एम. फिल. एवं
पी-एच. डी.
कविता संग्रह- इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुंदर-सुन्दर, बिलकुल
तुम्हारी तरह, कायांतरण,
आलोचना- भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समग्र,
आलोचना का मानुष मर्म
सम्पादन- प्रेमचंद: स्त्री जीवन की कहानियां, प्रेमचंद: स्त्री और
दलित विषयक विचार, प्रेमचंद: हिन्दू-मुस्लिम एकता संबंधी कहानियां और विचार
पुरस्कार और सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आलोचना के लिए
देवीशंकर अवस्थी सम्मान सहित हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘कृति सम्मान’ उत्तर प्रदेश
हिन्दी संस्थान का राम चन्द्र शुक्ल पुरस्कार एवं विजयदेव नारायण साही पुरस्कार,
भारतीय भाषा परिषद् का युवा पुरस्कार, डॉ राम विलास शर्मा आलोचना सम्मान और
परम्परा ऋतुराज सम्मान
सम्प्रति – इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्व विद्यालय नयी दिल्ली
के मानविकी विद्यापीठ में अध्यापन.
परवीन बाबी
कल छपी थी एक अखबार में
महेश भट्ट की टिप्पणी
परवीन बाबी के बारे में
कहना मुश्किल है
वह एक आत्मीय टिप्पणी थी
या महज रस्मअदायगी
या बस याद करना
पूर्व प्रेमिका को फ़िल्मी
ढंग से
उस टिप्पणी को पढ़ने के बाद
पूछा मैंने पत्नी से
तुम्हें कौन सी फिल्म याद
है परवीन बाबी की
जिसे तुम याद करना चाहोगी
सिर्फ उसके लिए
मेरे सवाल पर कुछ क्षण चुप
रही वह
फिर कहा उसने
प्रश्न एक फिल्म का नहीं
क्योंकि आज संभव है यदि
अपने बिंदासपन के साथ
ऐश्वर्य राय, करीना कपूर,
रानी मुखर्जी
प्रियंका चोपड़ा और अन्य के
साथ
नई-नई अनुष्का शर्मा रुपहली
दुनिया में
तो इसलिए कि पहले कर चुकी
हैं संघर्ष
परवीन बाबी और जीनत अमान
जैसी अभिनेत्रियाँ
स्त्रीत्व के मानचित्र
विस्तार के लिए
उन्हों ने ठेंगा दिखा दिया
था वर्जनाओं को
उन्हें परवाह नहीं थी किसी
की
उन्हों ने खुद को परखा था
अपनी आत्मा के आईने में
वही सेंसर था उनका
परवीन बाबी ने अस्वीकार कर
दिया था
नैतिकता के बाहरी कोतवालों
को
उसे पसंद था अपनी शर्तों का
जीवन
उसकी बीमारी उपहार थी उसे
परम्परा, प्रेमियों और समाज
की
जो लोग लालसा से देखते थे
उसे
रूपहले परदे पर
वे घर पहुँच कर लगाम कसते
थे
अपनी बहन बेटियों पर
परवीन बाबी अट्टहास थी
व्यंग की
उसके होने ने उजागर किया था
हमारे समाज को ढोंग
उसकी मौत एक त्रासदी थी
उसकी गुमनामी की तरह
लेकिन वह प्रत्याख्यान नहीं
थी उसके स्वप्नों की
भारतीय स्त्रियों के मुक्ति
संघर्ष में
याद किया जाना चाहिए परवीन
बाबी को
पूरे सम्मान से एक शहीद की
तरह
यह कहते-कहते गला भर्रा गया
था
पत्नी का चेहरा दुःख से
लेकिन एक आभा भी थी वहाँ
मेरी चिरपरिचित आभा
जिसने कई बार रोशनी दी है
मेरी आँखों को
अपनों के मन का
मैं कवि नहीं झूठ फरेब का
रुपया पैसा सोने-चांदी का
मैं कवि हूँ जीवन के सपनों
का
उजास भरी आँखों का
मैं कवि हूँ उन होठों का
जिन्हें काट गयी है चैती
पुरवा
मैं कवि हूँ उन कन्धों का
जो धंस गए हैं बोझ उठाते
मैं कवि हूँ
हूँ कवि उनका
जिनको नहीं मयस्सर नींद रात
भर
नहीं मयस्सर अन्न आंत भर
मैं कवि हूँ
हाँ, मैं कवि हूँ
उन उदास खेतों के दुःख का
जिनको सींच रहे हैं आँखों
के जल
मैं कवि हूँ उन हाथों का
जो पड़े नहीं चुपचाप
जो नहीं काटते गला किसी का
जो बने ओट हैं किसी फटी जेब
का
मैं कवि हूँ
जी हाँ, मैं कवि हूँ
अपने मन का
अपनों के मन का
अबकी मिलना तो!
मोबाईल में दर्ज हैं
कई नाम और नंबर ऐसे
जिन पर लम्बे अरसे से
मैंने कोई फोन नहीं किया
उन नंबरों से भी कोई फोन
आया हो
याद नहीं मुझको
मेरी ही तरह
उन्हें भी प्रतीक्षा होगी
कि फोन आये दूसरी तरफ से ही
हो सकता है
एक हठ वहाँ भी हो
मेरे मन की तरह
यह भी हो सकता है
न हठ हो न प्रतीक्षा
एक संकोच हो
या कोई पुरानी स्मृति ऐसी
जो रोकती हो उंगलियों को
नंबर डायल करने से
आखिर कभी-कभी रिश्तों में
आ ही जाती हैं
ऐसी स्मृतियाँ भी
तो क्या ऐसे ही
उदास पड़े रहेंगे ये नंबर
मोबाईल में
मुझे भय है कहीं गूंगे न हो
जाय ये
या मैं ही उनके लिए
इसलिए आज बतियाना बहुत
जरूरी है
उन सबसे
जिनकी आवाज सुने बहुत दिन
हुए
तो लो
यह पहला फोन तुम्हें
मित्र ‘क’
बोलो चुप क्यों हो
आवाज नहीं आ रही तुम्हारी
कहाँ हो
आजकल
क्या कर रहे हो
हंसते हो ठठा कर पहले ही
जैसे
या चुप रहने लगे हो
जैसे हो इस समय
कुछ तो कहो दोस्त
कि कहने सुनने से ही चलती
है दुनिया
अबोले में होती है मृत्यु
की छाया
मुझे सुननी है तुम्हारी
आवाज
बोलो मित्र
बताओ हाल-चाल... ... ...
सुनो, अभी करने हैं मुझे
बहुत सारे फोन
योजनाये बनानी हैं मिलने की
पूरे मन से धोनी हैं
रिश्तों पर जमी मैल
चाहें वह जमी हो मेरे कारण
या किसी के भी
सोचो दोस्त
यदि हमारे पैर छोड़ दें आपस
में तालमेल
या करने लगें प्रतीक्षा
हमारी तरह
पहले ‘वो’ पहले ‘वो’
तो ठूंठ हो जाएगा शरीर
बिलकुल अचल
और हर अचल चीज अच्छी हो
जरूरी तो नहीं
तो छोडो पुरानी बातें
हंसो जोर से
और जोर से
इतनी जोर से
कि भीतर बचे न कुछ भी मलीन
और हाँ अबकी मिलना
तो आखों में आँखें डालकर
मिलना
सचमुच
धधा कर मिलना
जैसे हाथ हो दाँया
अभी-अभी डूबा है सूर्य
उडूपी के खेतों में
अभी-अभी आयी हैं सांझ
वृक्षों की पुतलियों में
अभी
बिलकुल अभी
हँसे हैं नारियल के दरख़्त
हमारी और देख कर
जैसे लगना चाहते हों गले
जैसे पहचान हो बहुत पुरानी
प्रिये यह दक्षिण है देश का
सुन्दर मन भावन
जैसे हाथ हो दाँया अपने तन
का
स्मृतियाँ
स्मृतियाँ सूने पड़े घर की
तरह होती हैं
लगता है जैसे
बीत गया है सबकुछ
पर बीतता नहीं है कुछ भी
आदमी जब तैर रहा होता है
अपने वर्तमान के समुद्र में
अचानक स्मृतियों का ज्वार
आता है
कुछ समय के लिए
और सब कुछ बदल देता है
अचानक बेमानी लगने लगता है
तब तक सबसे अर्थवान लगने
वाला प्रसंग
और जिसे हम छोड़ आये होते
हैं
बहुत पीछे अप्रासंगिक समझकर
वह जीवन की तरह मूल्यवान
लगने लगता है
बहुत से सम्बन्ध और बहुत से
मित्र
जो छूट गए होते हैं आँकडों
की गणित में
अचानक किसी दिन सिरहाने खड़े
मिलते हैं
कुछ चिट्ठियाँ निकलती हैं
पुराने बक्सों से
और बंद पडी आलमारियो से
और उनमें लिखीं तहरीरें
दिखा जातीं हैं आईना
बीता हुआ कल
वहीं दुबका बैठा मिलता है
कभी हाथ मिलाने को बढ़ आता
है उत्सुक
कभी छुपा लेता है नजरें
कुछ लोगों को लगता है
जैसे स्मृतियाँ पीछे खींच
ले जाती हैं हमें
लेकिन ऐसा होता नहीं है
स्मृतियाँ अक्सर तब आतीं
हैं
जब सूख रहा होता है
अंतर का कोई कोना
सूखे के उस मौसम में
वे आती हैं बरखा की तरह
और चली जाती हैं
मन-उपवन को सींच कर
सुख
आज बहुत दिनों बाद सोया
दोपहर में
उठा शीतल-नयन प्रसन्न मन
सब कुछ अच्छा-अच्छा लगा.
कभी दोपहर की नींद
हिस्सा थी दिनचर्या की
न सोये तो भारी हो जातीं
थीं रातें भी
कस्बा बदला
दिनचर्या बदली
दोपहर की नींद विलीन हो गयी
अर्धरात्रि की निद्रा में
न जाने कहाँ बिला गया
दोपहर का संगीत
जाने कहाँ डूब गयी वह
मादकता
जो समा जाती थी
दोपहर चढ़ते-चढ़ते
मुझे दुःख नहीं
दोपहरी के नींद के स्थगन का
मुझे मलाल नहीं भागमभाग का
इसे मैंने चुना है फिर
प्रलाप कैसा
जो है अपने हिस्से का सच है
लेकिन आज जो थी दोपहर में
आँखों में बदन में
और जो है उसके बाद मन में
वह भी सच है इसी जीवन का
आखिर क्या करूँ इस पल का
क्या इसे विसर्जित कर दूं
किसी और सुख में
नहीं, नहीं कदापि नहीं
मैं इसे विसर्जित नहीं कर
सकता
किसी भी अन्य सुख में
यह पल आईना है
जीवन का
सुख का
दृष्टिकोण
वह डूबा है जिसके सपनों में
उसके सपनों के आस-पास भी
नहीं है वह
फिर भी उसका मन
सूरजमुखी का फूल बना
एकटक ताक रहा है उसी ओर
वह जानता है हिसाब-किताब
यह भी कि
मन के इस गणित में उसे
हांसिल हो शायद शून्य ही
फिर भी वह नहीं छोड़ना
चाहता अपना सपना
नहीं बदलना चाहता
दृष्टिकोण
उम्मीद
कोई किसी को भूलता नहीं
पर याद भी नहीं रखता हरदम
पल-पल की मुश्किलें बहुत
कुछ भुलवा देती हैं आदमी को
और वैसे भी जाने अनजाने,
चाहे-अनचाहे
हर यात्रा के लिए मिल ही
जाते हैं साथी
जो बिछड़ जाते हैं किसी
यात्रा में विदा में हाथ उठाये
सजल नेत्रों से शुभकामनाएं
देते
जरूरी नहीं कि वे मिले ही
फिर
जीवन के किसी चौराहे पर
फिर भी उम्मीद का एक सूत
कहीं उलझा रहता है पुतलियों
में
जो गाहे-बगाहे खिंच जाता
है.
जैसे अभी-अभी खींचा है वह
सूत
एक किताब खुल आये है
स्मृतियों की
याद आ रहे हैं गाँव की
पाठशाला के साथी
चारखाने का जांघिया पहने
रटते हुए पहाड़े
दिखाई दे रही है बेठन में
बंधी उनकी किताबें
उन दिनों बाबूजी कहते थे
किताबों को उसी तरह बचा कर
रखना चाहिए
जैसे हम बचा कर रखते हैं अपनी
देह
वे भाषा के संस्कार को
मनुष्य के लिए
उतना ही जरूरी मानते थे
जितनी जरूरी होती हैं जड़ें
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
आज भी वे भागते दौड़ते जीवन
की लय मिलाते
जब भी चोटिल होता हूँ थकने
लगता हूँ
जाने कहाँ से पहुंचती है
खबर उन तक
झटपट आ जाते हैं सिरहाने
मेरे !
संपर्क-
हिन्दी संकाय, मानविकी
विद्यापीठ, ब्लाक एफ,
इग्नू, मैदानगढ़ी, नयी
दिल्ली-६८
मोबाईल- ०९८१८९१३७८९
Mam pls pathwari bna kr dikhae...
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