(1)
मन पीटो ,सपने जोड़ो ....अपनी घुटन समेटो
उन्नीदीं घड़ियों में उन्हें बो आवो
जब पक कर खडी हो जाए फसल
बाँट दो बूरा बूरा ... चूरा चूरा
ऐसे ही होता है सृजन
ऐसे ही मिलता है मन .....
(2)
बहुत कुछ बचा है ,इस ऊब उकताहट के बीच
बहुत सी आत्मरति ,बहुत से शोकगीत
मधुमक्खी के छत्ते सी फैली है लाचारी
रेगिस्तानी भूख प्यास और दिमागी बीमारी
मटमैली आँखें ,खुरदुरी हथेली
भीतरी दरारें ,बाहरी दीवारें
बहुत से भद्दे मज़ाक ,भितरघात ...
बदहवास रातें ,सडती गंधाती आस
हाएना संततियों की जंग लगी सोच
इस मुर्दा संस्कृति की देगी गवाही ....
क्या अब भी आप कहेंगे //बहुत कुछ बचा है
इस ऊब उकताहट के बीच ..
(3)
मित्रों कल मैंने देखा
लाचार सूर्य अपने अभाव समेट कर
समुन्द्र में कूद गया ....
शहर रौशनी से चुंधिया रहे थे
लोगे अपने अपने मुर्दा होंठों पर
ज़िन्दगी के गीत गा रहे थे.. रात नशे में डगमगा रही थी
मेरे सिरहाने बहुत सी तस्वीरें ,और उनकी कहानी तितर बितर थी
हर खिड़की के पीछे खामोशी और गहरी उदासी थी
फिर भीअपने मुर्दा होंठों पर जिंदगी के गीत सजाये हुवे थे
डॉ सुधा उपाध्यायदिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरिअल कॉलेज मेंअसिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हिंदी की अनेक पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित. |
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