शराब की बोतल से जिन्न निकला
और उस पियक्कड़ सेबोला
– हुक्म मेरे आका ǃ
आप जो भी मुझसे मंगवाओगे
वह मे। ले आउंगा
बस शराब की बोतल नहीं मंगवाना
वरना मुझसे हांथ धो के पछताओगे.
सुनकर पियक्कड़ बोला
–मेरे पास बाकी सब है
उनसे भागता हुआ ही शराब के नशे में
घुस जाता हूं
दिल को छू ले ऐसा कोइ प्यार नहीं देता
देनें से पहले प्यार, अपनीं कीमत लेता
तुम भी दुनिया की तमाम चीजें लेकर
मेरा दिल बहलाओगे
मुझे मालूम है तुम छोड़ जाओगे
जाओ जिन्न किसी जरूरतमंद के पास
मुझे नहीं खुश कर पाओगे......
- संजय राय
Sunday, July 29, 2012
वीर सदा हंस कर पलता है !
वीर सदा हंस कर पलता हैं ,
असि पर और शरों पर,
जिसकी गाथा खेला करती ,
सदा जगत अधरों पर ।
वीरत्व सदा जाना जाता हैं ,
अपने तेज प्रखर से ...
साहस रखता जो तोड़ सितारे
ले आने का अम्बर से ।
सच हैं , वीरता ही रख सकती
हैं विजय की चाह ...
पर हैं सच्चा वीर सदा
जो चले धर्म की राह ।
वही विजय हैं पूज्य की जिसमे
निहित भुजा का बल हो ...
नहीं कोई भी कपट न कोई
लेश मात्र भी छल हो ।
- विजय शुक्ला
असि पर और शरों पर,
जिसकी गाथा खेला करती ,
सदा जगत अधरों पर ।
वीरत्व सदा जाना जाता हैं ,
अपने तेज प्रखर से ...
साहस रखता जो तोड़ सितारे
ले आने का अम्बर से ।
सच हैं , वीरता ही रख सकती
हैं विजय की चाह ...
पर हैं सच्चा वीर सदा
जो चले धर्म की राह ।
वही विजय हैं पूज्य की जिसमे
निहित भुजा का बल हो ...
नहीं कोई भी कपट न कोई
लेश मात्र भी छल हो ।
- विजय शुक्ला
Friday, July 27, 2012
हर्षवर्धन आर्य की दो कवितायेँ !
हर्षवर्धन आर्य की कलाकृति |
ममता का कोई धर्म नहीं होता ,
और, ना होती जाति माँ की ,
आँचल ही है उसकी पहचान
स्नेह ही है उसका धर्म
जैसे ,एक फूल का धर्म है खिलना .
जैसे एक नदी का धर्म है बहना.
जैसे ,एक पेड़ का धर्म है छाया देना ….
खिलती है माँ भी बच्चों को देख ,
बहाती है नेह क्षीर .
देती है आँचल की छाया ,
सदा -सदा ,
सचमुच ही
यदि , वह है…..माँ …..
तो………!
बेटियां धरती की
बेटियां धरती की
कब कैद हो पाई है
ख़ुशबू फूलों की,
तितलियाँ कब रुकी हैं
उड़ने से ,
ज्योंही खुलता है पिंजरा… ज़रा सा –
उड़ जाती हैं चिड़ियाँ
खुले आकाश में ,
और नानी माँ की रोचक– मनहर कहानियों के
तिलिस्मी संसार से
निकल आईं हैं बाहर
सारी परियां ……
नहीं रही हैं मात्र कल्पना की उड़ान
अपितु उड़ रही है सच्ची –मुच्ची की कल्पना (चावला )
असीम आकाश में …
जाती है चाँद के आँगन में सुनीता विलियम्स ’
खेलती है सितारों को बना कर सटापू*
झूलती है स्पेस-शटल में ’”नाओकोयामाजाकी ”*
गुनगुनाती है चंदा के कान में “ लिंडन बर्गर ”*
और “ट्रेस डायसन ” करती है गुदगुदी
गगन के बदन पर
स्कीइंग करती है शून्य में “स्टेफनी विल्सन ”
और ….ना जाने कितनी ही
सृजनरत सृजनाएं
धरती के आँचल से
उड़ कर
अंतरिक्ष के अंगना में
लिख रही हैं नाम सितारों पर…..
फैला रही हैं धरती की ख़ुशबू
सुदूर अंतरिक्ष में
ये नन्ही तितलियाँ
आजाद परियां
बेटियां धरती की !
मिनाक्षी जिजीविषा की कविता 'स्त्री' !
सुनो !
झाड़ू बुहारते हुए
बीन लेना ,कचरे से
छुट गयी काम की चीज़ों की तरह
छुट गयी , अपनी कुछ इच्छाएं भी !
झूटे बर्तन साफ़ करते हुए
सँभाल लेना
बर्तनों की चमक की तरह
आँखों में कुछ सपने भी
खाना बनाते हुए
जीभ के स्वाद की तरह
सहेज लेना स्मृति में
कविता भी
मैले कपडे पचिते हुए
पसीने की महक की तरह
बसा लेना रोम रोम में
जिजीविषा भी
चूल्हा जलाते हुए ....
रख लेना कुछ चिंगारियां
शब्दों की .....अपने सीने में ...
ताकि मिल सके उर्जा
जीने के लिए ........
सुषमा भंडारी की दो कवितायेँ !
सच !
सच!बहुत जरूरी है
आर्थिक कवच
प्रत्येक देह के लिए
चाहे वो कथा संसार हो
या फिर संसार।
सच!
बहुत जरूरी है
चिरागों का जलना
प्रत्येक खुशी के लिए
चाहे वो घर हो
या फिर जिंदगी का सफर।
सच!
बहुत जरूरी है
यादों के पल
जीने के लिए
चाहे वो सुख दें
या दुःख।
सच!
बहुत जरूरी है
रिश्तों में विश्वास
चाहे वो गैर के लिए हो
या फिर
अपने लिए।
क्षमता
रेत हूँढह जाऊँगी
नदी हूँ
बह जाऊँगी
पीड हूँ
सह जाऊँगी
आग हूँ
दह जाऊँगी!
मैं अबला नहीं
सबला हूँ
और न ही मैं
जड़ हूँ
न जड़ बनकर
रहना चाहती हूँ
मैं चेतन हूँ
और ये सब
जिंदगी के यथार्थ
जीने की
क्षमता है मुझमें।
सुषमा भंडारीहिंदी की चर्चित गीतकार / हिंदी साहित्य में एम्.फिल. की उपाधि प्राप्तअनेक राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित सुषमा भंडारी के कई कविता और गीत संग्रह हैं साहित्य जगत मैं इन्हें माहिया और गीत विधाओं के लिए जाना जाता है sushma.bhandari.547@ |
सुधा उपाध्याय की तीन कवितायेँ !
(1)
मन पीटो ,सपने जोड़ो ....अपनी घुटन समेटो
उन्नीदीं घड़ियों में उन्हें बो आवो
जब पक कर खडी हो जाए फसल
बाँट दो बूरा बूरा ... चूरा चूरा
ऐसे ही होता है सृजन
ऐसे ही मिलता है मन .....
(2)
बहुत कुछ बचा है ,इस ऊब उकताहट के बीच
बहुत सी आत्मरति ,बहुत से शोकगीत
मधुमक्खी के छत्ते सी फैली है लाचारी
रेगिस्तानी भूख प्यास और दिमागी बीमारी
मटमैली आँखें ,खुरदुरी हथेली
भीतरी दरारें ,बाहरी दीवारें
बहुत से भद्दे मज़ाक ,भितरघात ...
बदहवास रातें ,सडती गंधाती आस
हाएना संततियों की जंग लगी सोच
इस मुर्दा संस्कृति की देगी गवाही ....
क्या अब भी आप कहेंगे //बहुत कुछ बचा है
इस ऊब उकताहट के बीच ..
(3)
मित्रों कल मैंने देखा
लाचार सूर्य अपने अभाव समेट कर
समुन्द्र में कूद गया ....
शहर रौशनी से चुंधिया रहे थे
लोगे अपने अपने मुर्दा होंठों पर
ज़िन्दगी के गीत गा रहे थे.. रात नशे में डगमगा रही थी
मेरे सिरहाने बहुत सी तस्वीरें ,और उनकी कहानी तितर बितर थी
हर खिड़की के पीछे खामोशी और गहरी उदासी थी
फिर भीअपने मुर्दा होंठों पर जिंदगी के गीत सजाये हुवे थे
डॉ सुधा उपाध्यायदिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरिअल कॉलेज मेंअसिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हिंदी की अनेक पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित. |
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