सोचते-सोचते…
दिमाग की नसें फूल गई हैं
ये भूल गई हैं सोना
साथ ही भूल गई हैं
सोते हुए ‘इस आदमी’ को
सपने दिखाना
रात-दिन बस एक काम
सोचना...सोचना...सोचना
विचार की सूखी-बंज़र धरती को
खोदकर पानी निकालने की कोशिश में
पता है…
हर रोज़ तारीख़ें ही नहीं बदल रही
बहुत कुछ बदल रहा है....
कुछ पहचान वालों की
उधार बढ़ती जा रही है
और उधार देनेवालों की फेहरिस्त भी
कुछ पहचानवालों की
बेचैनी बढ़ गई है...
वो अनजान बन जाने के लिए
बेचैन हो उठे हैं....
और दिमाग है
कि कमबख़्त सोचता जा रहा है...
पेट की आग कुरेदती है...
तो भूख सोचती है..
पहचानवालों की उधार से
ये आग बुझ जाती है
तो फिर दिन सोचता है...
रात सोचती है
प्राइवेट नौकरी की मार सोचती है
बॉस की फटकार सोचती है..
बेगार सोचता है…
फटी जेब का फटेहाल सोचता है
एक आम आदमी का दिमाग
इक्कसवीं सदीं में भी…
बा-ख़ुदा !!!
क्या-क्या जंजाल सोचता है???
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