Friday, December 17, 2010
रमकलिया की जात न पूछो !
कहाँ गुजारी रात न पूंछो
नाक पोंछ्ती, रोती गाती
धान रोपती, खेत निराती
भरी तगारी लेकर सिर पर
दो-दो मंजिल तक चढ़ जाती
श्याम सलोनी रामकली से
कोठे की रमकलियाबाई
बन जाने की बात न पूंछो।
बोल-चल में सीधे-साधे
लेकिन मन में स्याह इरादे
खरे-खरों की बातें खोटी
अंधियारों में देकर रोटी
आटे जैसा वक्ष गूंथने-
वाले किसके हाथ न पूंछो।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई
हों या ना हों भाई-भाई
रमकलिया पर सबकी आँखें
सभी एक बरगद की शाखें
इस बरगद की किस शाखा में
कितने-कितने पात न पूंछो।
रोज-रोज मरती जी जाती
आंसू पीकर भी मुस्काती
रमकलिया के बदले तेवर
नई साड़ियाँ, महंगे जेवर
बेचारी क्या खोकर पाई
यह महंगी सौगात न पूंछो।
पूछ लिया तो फंस जाओगे
लिप्त स्वयं को भी पाओगे
रमकलिया के हर किस्से में
उसके दुख के हर हिस्से में
अपना भी चेहरा पाओगे
सिर नीचा कर बंद रखो मुंह
खुल जाएगी बात न पूंछो।
रमकलिया तो परंपरा है
उसकी कैसी जात-पांत जी
परंपरा में गाड़े रहिये
अपने तो नाखून, दांत जी
सोने के हैं दांत आपके
उसकी तो औकात ना पूंछो।
रमकलिया की जात न पूंछो
कहाँ गुजारी रात न पूंछो।
Tuesday, November 16, 2010
भि़क्षुक
वह आता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता ।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी – भर दाने को – भूख मिटाने को
मुँह फ़टी पुरानी झोली का फ़ैलाता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता ।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फ़ैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया- दृष्टि पाने की ओर बढाये ।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता – भाग्य – विधाता से क्या पाते ? –
घूँट आसुओं के पीकर रह जाते ।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़्क पर खड़े हुए,
-- सुर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’
अरविन्द चौहान के हाइकु !
gaulamaaohr pr ha[-ku
1 gamaI- baohala
gaulamaaohr Ca^va
SaItla baahoM
2 Qara BaBakI
do SaItla qapkI
gaulamaaohr
3 CtrI GanaI
hrI AaOr laala saI
hro vaao gamaI-
4` h^sato fUla
gaulamaaohr kho
kha^ hO gamaI-
5 piqak hara
gaulamaaohr tlao
jaIvanadana
6 gaulamaaohr
do paz jaIvana ka
SaItla banaao
7 laala laala saI
Paa^t lagaI Anant
gaulamaaohr
8 barsao riva
zMDI Ca^va inaScala
gaulamaaohr
9 Clako laalaI
CTa Ba[- inaralaI
SaItla Ca^va
10 QaUla gaubaar
samaoTo hao inasvaaqa-
gaulamaaohr
11 fUla laala sao
hrI pi%tyaa^ sajaIM
lajaae Qara
12 CIMTo hOM laala
rMga gayaa hO mana
फूलों का गजरा !
बहना, तेरी चोटी में
फूलों का गजरा ।
फूलों के गजरे ने
घर-भर महकाया,
बतलाना, बतलाना
कौन इसे लाया ?
साँसों में छोड़ गया
ख़ुशबू का लहरा ।
गजरे में फूल खिले
बेला-जुही के,
आँखों में तेरी हैं
आँसू खुशी के,
चेहरे पर बिखरा है
जादू सुनहरा ।
तुझ पर ही नज़रें हैं
छोटे-बड़ों की,
बात हुई बहना,
आज क्या अनोखी ?
क्या इसमें है कोई
राज बड़ा गहरा ?
- रचनाकार: रमेश तैलंग
और नहीं तो थोड़ा सा मुस्कुराया कर !
कभी-कभी तो मेरे घर भी आया कर।
तू ही एक नहीं है दुनिया में आलिम,
अपने फ़न पर न इतना इतराया कर।
औरों के चिथड़े दामन पर नज़रें क्यूं,
पहले अपनी मैली चादर धोया कर।
लोग देखकर मुंह फेरेंगे झिड़केंगे,
सरेआम ग़म का बोझा न ढोया कर।
वक़्त लौट कर चला गया दरवाजे से,
ऐसी बेख़बरी से अब न सोया कर।
मैंने तुमसे कुछ उम्मीदें पाल रखी हैं,
और नहीं तो थोड़ा सा मुसकाया कर।
नीचे भी तो झांक जरा ऐ ऊपर वाले,
अपनी करनी पर तो कुछ पछताया कर।
रात-रात भर तारे गिनते रहते हो,
चैन मिलेगा मेरी ग़ज़लें गाया कर।
इन्द्रधनुषी सपने !
जब खो जाती हैं आशाएं,
शाम के सुरमई अंधेरों में,
जब मन देता है सदायें,
तो चन्द्र-किरणों के रथ पर हो सवार,
लिए झिल-मिल तारों की सौगात,
रुपहली-सुनहरी यादों के सिरहाने बैठ,
आँखों के कोरों से बहते टप-टप,
आँसुओं से भीगी चादर हटा कर,
अपनी प्रेम ऊष्मा से आलिंगन कर,
मन में छिपे किसी अतीत की याद में,
अल्हड़ स्मृतियों में चंचलता भर कर,
आकांक्षाओं का संसार सजा जाते हैं,
ये सपने, इन्द्रधनुषी सपने.
धुंधली राहों में जब खो जाते हैं अपने,
तो स्वप्निल नयनों में अश्रुकण झलकाते,
कभी अंतस के गहन अवचेतन में,
आशाओं के दीप जलाते,
मन के उजले आँगन में,
रंग-बिरंगे रंग सजाते...
ये सपने...ये इन्द्रधनुषी सपने.
कुछ मूक प्रश्न, कुछ अनुत्तरित प्रश्न,
बसे अन्तस्तल में खोजते उत्तर,
बंद पलकों में, मौन नयनों के भीतर,
चित्रलिपि की भाषा में शब्द बाँचते,
अनसुलझी पहेलियाँ सुलझाते और...
कभी भविष्यवेत्ता बन कर और भी
रहस्यमय बन जाते...
ये सपने...ये इन्द्रधनुषी सपने.
अंतस के तम को हरते,
कभी हँसाते,कभी रुलाते,
कभी जिज्ञासु मन के कौतूहल पर,
मंद-मंद मुस्काते ...ये सपने.
सत्य-असत्य की सीमारेखा पर,
छोड़ जाते अवाक मन...
ये सपने...ये इन्द्रधनुषी सपने....
- शील निगम
जींस की यंत्रणा !
मनोविज्ञान
तुम्हारा चेहरा आबनूसी काला हो सकता है
या झील में तेल की बूँद के चाँद सा
दाग,
अंधापन,
मूक होना
या दुनिया के लिए बहरापन
तुम इन सब में सीख लेते हो जीना !
पर इधर बहुत कुछ आनुवांशिक नहीं
किन्तु डर लगता है
क्योंकि इसे हम ठेल-ठेल कर
भरते हैं
अपनी दिमागी आनुवांशिकता पर
एक दुरूह हैलिक संरचना
जिसमें रीतियों की कोशिकाएं
पनपती हैं -
और जन्म से पहले ही
नाम पाते हो धर्म का
संस्कार का -
जिसमें तुम्हारे ईश्वर की दी कोशिकाएं
धमनियां
नसें
मांस- मज्जा
रूपित-विरूपित होती हैं...,
इंसान से अलग
तुम्हारे नाम अलग होने को चिन्हित करती ..
बस इसी में -
धड़कना सीखता है दिल ...
दिमाग की मशीन
और शरीर के सारे कल-पुर्जे
इश्तहार की तरह
प्रचारित करते हैं
अपनी अस्मिता ...l
गुफाओं में चित्र अंकित करते
न जाने कब
तुमने अलगाव में रहना सीखा?
कब तुम्हारे समूह
स्पर्धाओं की सीमा बुनते गए?
कब इतिहास की सीवन उधेड़कर
तुमने जताना सीखा
कि तुम श्रेष्ठ हो?
कभी तुमने नग्न सौन्दर्य को जिया है...?
तहखानों के बाहर की जिन्दगी...
बहुत दिनों से
बंद हो..!
चिपकी हुई सीलन
सड़ांध
पिस्सू
मकड़ियां...
इन सबके बाहर...
जलता सूरज
हवाओं के जलतरंग
पानी के धरातल के
चिकने-समतल दर्पण हैं ..
झांककर देखो
तुम इंसान हो न !
वंशानुगत
या आनुवांशिक ?
- अपर्णा भटनागर
विद्रोही आँच !
’चाँदनी’ उपनाम से कविता लिखने वाली ज्योत्स्ना का जन्म जनवरी 1967 मे सीतापुर (उ।प्र।) मे हुआ। लखनऊ की रहने वाली ज्योत्स्ना ने हिंदी मे परास्नातक किया है। कविता का शौक मुख्यतया स्वांत-सुखाय रहा। वर्तमान में ज्योत्स्ना गांधीनगर (गुजरात) मे निवास कर रही हैं। प्रस्तुत कविता बढ़ते हुए सामाजिक तापमान की कारक विसंगतियों की तलाश हमारे आसपास करने की कोशिश करती है।
विषमताओं की विवशता,
विभेद से उपजी वैमनस्यता,
कारक हैं
विसंगतियों से विद्रोह का..
विद्रोही आँच से बढता
सामाजिक तापमान,
अंतस को भर देता है,
उमस और घुटन से...
कब, क्या, क्यों और कैसे
जैसे कई प्रश्नों का समाधान,
कागज़-दर-कागज़ होते हुए,
बन्द हो जाता है,
निरुत्तरित फाइलों में...
यदि कभी-कभार
सरकारी योजनाओं के छींटे,
तपते अंतस पर पड़ भी जाएँ
तो, भाप बन कर उड़ जाते हैं,
ऊँची-ऊँची कुर्सियों के हत्थे तक..
ऐसे में,
बढ़ी हुई उमस,
और अधकचरी, अपाच्य योजनाओं
के कारण,
उबकाइयां आती हैं...
समय रहते उपचार न हुआ ,
तो, उल्टियां भी आ सकती हैं,
फदकते हुए आक्रोश की...
ख्वाब कब तक मेरे ज़वाँ रहते !
रस्ते हमेशा तो नहीं आसाँ रहते।
मरने पर तो ज़मीं नसीब नहीं
जीते-जी कहो फिर कहाँ रहते।
शौक फर्मा रहे वो आग से खेलने का,
आबाद कब तक ये आशियाँ रहते।
अपना बना कर ग़र न लूटते हमें,
जाने कब तक मेरे राजदाँ रहते।
काबू में रहती मन की बेईमानी अगर,
गर्दिशों में भी हम शादमाँ रहते ।
सीखा न था मर-मर के जीना कभी,
आँधियों के हम दरमियाँ रहते ।
लाख सामाँ करो ’अनिल’ की बर्बादी का,
हम तो खुश रहते, जहाँ रहते ।
- डॉ अनिल चड्डा
रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध !!
पर कदम-कदम पर जीवन का अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पड़ने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया
तब लगा कि हर चीज़ को एक टैग लगा कर कोने में रख दिया जाता है
जो बिना किसी विशेषण के अधूरी मान ली जाती है
अपनी ही कालिमा से लिप्त अधूरा इंसान भी
बिना विशेषण के सामने की किसी अधूरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है
नीले रंग की कहानी भी इसी तरह
मुझे देर तक खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुड़ा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया
यह लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर
इतिहास की लालिमा की ओर लपका फिर वापिस लौटा
लहुलुहान हो कर
कुछ ही दूरी पर खड़ा केसरी रंग प्रतयांचा पर चढ़ा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु-सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिट्टी में गुंथा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में
मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ-कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसी ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ठीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हूँ।
दोनों कवितायेँ
- सुश्री विपिन चौधरी
टाँड़ पर चरखा !
घूमना बंद कर देती हैं
तो हमसे निश्चित दूरी बना लेती हैं
उनसे तभी तक स्नेह बना रहता है जब तक वे हमारे हाथ में रहती हैं
हाथों से छूटते ही सीधे गर्त में चली जाती हैं
फिर उनसे सिर्फ यादों को माँझने का काम ही लिया जा सकता है
इस ख्याल को और पुख्ता बनाया
अँधेरे-ओबरे में रखे उस चरखे ने जो
आँखों से दस उँगल की ऊँचाई पर
ढेर सारे लकड़ी के पायों, जेली और घर की दूसरी गैरजरूरी चीज़ों के साथ ही
समेट कर वहाँ रख दिया गया था जहाँ
किसी का हाथ आसानी से ना पहुँच सके
नयी चीजों से दोस्ती कर
हम पुरानी चीजों को धूल के हवाले कर देते हैं
तो वे कई कोण बना कर हमारी आत्मा मै घर कर लेती है
वैसे भी ज्यादा दिनों तक जो चीज़ें हमारे जहन में अटकी रह जाती हैं
वो धीरे-धीरे वो ना बुझने वाली प्यास में तबदील हो ही जाती हैं
तो चरखे की आँख में ठहरा हुआ पानी, जाले और ढेर सारी मकड़ियाँ थी
मगर अब भी वह बहुत कुछ याद दिला सकता था
उसने दिलाया भी
गावँ के घर का लम्बा-चौड़ा आँगन, कई बीघा खेत, झाड़ियाँ, बटोड़े
चक्की, बिलोना, आधा चाँद की लुका-झिपी
मँगलू कुम्हार के हाथों बनी बाजरे की खिचड़ी, जिससे बचपन का सबसे घना हिस्सा आबाद हुआ करता था
सूरज के देर से छिपने और जल्दी ढल जाने वाले और
कभी उदास न होने वाले दिन
हँसी-ठठे के वे रंग जो अब तक नहीं छूट पाए है
जीवन के पक्केपन से हमारी यारी-दोस्ती नहीं हुयी थी तब
ना ही हमारी नाक इतनी लंबी हुई थी जो गोबर की महक से टेड़ी हो जाये
दूध दोहते वक़्त गाय और बछड़े के रिश्ते का नन्हा अकुंर कहीं भीतर पनप जाया करता था
उसी आकर्षण मै बंधे हम देर तक बछड़े को उसकी
माँ का दूध पीने देते
और इसपर घर वालों की डाँट खाते, यह हररोज का क्रम था
पंचायत की ज़मीन पर लगे बेरी और नीम के पेड़ों पर
उछल-कूद दोहरा-तिहरा मज़ा दिया करती थी
आज की तरह चरखा हमें
चौंकाता नहीं था
मन हरा कर देता था
उस हरेपन की हरितिमा के घेरे में चक्की पर गेहूँ पिसती माँ
और भी नज़दीक आ जाती थी
बिलौने से मक्खन ले हम खेतों की ओर निकल पड़ते थे
शाम को पाईथागोरस की थ्योरम और E=MC2 का फ़ॉर्मूला याद करते करते हम
अपने रिश्तेदारों की कूटनीतियाँ स्वाहा कर देते थे
रासायनिक क्रियाएं हमारें भीतर उत्पात मचाती रहती थी
और हम समझ नहीं पाते थे
कि हमारी गलती क्या है
चरखे के साथ ही माँ के वे दिन भी याद आये
जब वह अपने दुख को इतनी मुश्तैदी से सूत में लपेट दिया करती थी
कि हम लाख कोशिशों के बाद भी उसके चेहरे पर आँसू का एक भी कतरा नहीं ढूँढ़ पाते थे
अब तो वह दुख तो इतना आगे निकल गया है कि उसे पहचाना पाना मुमकिन नहीं
मुमकिन है तो बस जीवन और बीते वक्त की जुगलबंदी की वे यादें
चाह कर भी बचपन और आज की उम्र का फासला गुल्ली डंडे से पूरा नहीं किया जा सकता
ना ही चरखे को वही पुराना रिश्ता जुड़ सकता है
चेतना के हज़ारो धागे चरखे से जुड़े होने के बावजूद
उसे नीचे उतारने के ख्याल से ही कँपकपी चढ़ने लगती है
कहाँ रखेगे इसे
पाचँवे माले के सौ गज के फ्लैट में
नहीं संभव ही नहीं
फिर से चरखा यहीं छूट जाता है
फिर से कोई हमसा ही अभागा
इस चरखे के ज़रिये यादों की धूल झाड़ेगा
पर संदेह इसमे है कि क्या यादों की यह धार
जब भी आज सी ही तेज़ रह पाएँगी।
अक्षरों से बातें !
सुनो मेरी बात
आओ मेरे पास
मैं तुम्हारे लिए वेणी बनाउंगी
खयालो से भी नाज़ुक
जलपरी से भी खूबसूरत
ज़ज्बातो के जेवर पहना
एक अनुपम, अद्वितीय बाला बना
सोलह श्रृंगार कर
तुम्हे दुल्हन सा सजाऊँगी
तेरे रूप पे कुर्बान
कुछ फक्कड़, कुछ अनजान लोग
होंगे तेरे कद्रदान
करेंगे तुम्हारी पहचान
रत्न को परखते जोहरी के मानिंद
कुछ खुसरो, तकी मीर या ग़ालिब जैसे
रहस्यवाद और छायावाद में गुसल करते
प्रसाद, निराला और पन्त जैसे
तुझे भक्तिमार्ग में ले जा रहीम, रसखान
मीरा में बदल दें तो
प्रसिद्धि मिल जायेगी
ये सारे
अलग-अलग नामो से पुकारेंगे तुम्हे
इन सब से प्यार करना
किसी के ह्रदय पर कविता बन राज करना
किसी के उर नज़्म बन समाँ जाना
कोई शायरी कह आवाज दे शायद
तो किसी के लिए भीनी ग़ज़ल बन.....
जुबाँ से फिसल जाना
सभी के मन के अथाह सागर में
एक कोमल स्थान तो मिलेगा तुझे
ऐसा वादा है मेरा
एक निशब्द, अनजाना
लेकिन फिर भी जाना-पहचाना
अर्थयुक्त रिश्ता बन
बिन सवालों का जवाब तलाशे
दिल में राज करोगे तुम सारे
ऐसा नसीब सबका नहीं होता
कोई किसी के इतने करीब भी नहीं होता
मेरे निश्छल स्वभाव को पहचानो
चले आओ ......
कोई विनिमय नहीं
व्यापार नहीं
मेरा क्या ?
एक दिल ही है जों
बहल जाएगा
तुम्हारी इज्ज़त में इजाफा हो जायेगा
तो हे अक्षरों, शब्दों, मात्राओं, चन्द्र-बिंदियों
चले आओ
साथ में अल्प विराम और पूर्ण विराम
को भी लाओ
अब कैसी ये दूरी ?
कैसा फासला?
कैसा संकोच ?
- प्रियंका चित्रांशी
प्यार की दुनिया को फिर से देख लो इक बार तुम !
मान जाओ, आ-भी-जाओ, मत करो इनकार तुम
उस जगह तो प्यार कोई, कर न तुमको पाएगा
फिर चले आओ वहाँ, कभी थे जहाँ इकबार तुम
प्यार की दुनिया को फिरसे, देखलो इकबार तुम
कुछ गलत और कुछ सही, ज़िन्दगी तो है यही
होगा क्या उस जीत का, ये ही गर जो ना रही
जो नेता मरने को कहे, रहो उससे होशियार तुम
उसपार की जाने ना कोई, खुश रहो इसपार तुम
प्यार की दुनिया को फिरसे, देखलो इकबार तुम
जो भी सुलझा है जहाँ में, जंग से सुलझा नहीं
उलझा मगर ज़रूर है, तुम मानो या मानो नहीं
मारती है लकड़ी भी, गर बनाओगे हथियार तुम
नाव आगे खे ही लोगे, बनाओ उसे पतवार तुम
प्यार की दुनिया को फिरसे, देखलो इकबार तुम
कभी हारना कभी जीतना, ज़िन्दगी में आम है
हर हाल में पर मुस्कुराना, आदमी का काम है
जो करोगे सो भरोगे, ये तो जानते हो यार तुम
प्यार का फिर ज़िन्दगी को, दे-ही-दो उपहार तुम
प्यार की दुनिया को फिरसे, देखलो इकबार तुम
मौत से ठगती है तुमको, ये तुम्हारी ज़िन्दगी
तुम देखना रूठे नहीं, तुमसे तुम्हारी ज़िन्दगी
शक्ल से तो प्यारे हो, अक्ल से समझदार तुम
खांमखां ही मौत से, खा ना जाना मार तुम
प्यार की दुनिया को फिरसे, देखलो इकबार तुम
मान जाओ आ भी जाओ, मत करो इंकार तुम
उस जगह तो प्यार कोई, कर न तुमको पाएगा
फिर चले आओ वहाँ, कभी थे जहाँ इकबार तुम
प्यार की दुनिया को फिर से, देख लो इक बार तुम
जब ग़ज़ल मुश्किल हुई !
राह जब आसां हुई, मुश्किल हुई
हम तो मुश्किल में सुकूं से जी लिए
मुश्किलों को पर बड़ी मुश्किल हुयी
ख्वाब भी आसान कब थे देखने
आँख पर जब भी खुली, मुश्किल हुई
फिर अड़ा है शाम से जिद पे दिया
फिर हवाओं को बड़ी मुश्किल हुई
वो बसा है जिस्म की रग-रग में यूँ
जब भी पुरवाई चली, मुश्किल हुई
रोज़ दिल को हमने समझाया मगर
दिन ब दिन ये दिल्लगी मुश्किल हुई
मानता था सच मेरी हर बात को
जब नज़र उस से मिली मुश्किल हुई
होश दिन में यूँ भी रहता है कहाँ
शाम जब ढलने लगी मुश्किल हुई
क़र्ज़ कोई कब तलक देता रहे
हम से रखनी दोस्ती मुश्किल हुई
चाँद तारे तो बहुत ला कर दिए
उसने साड़ी मांग ली, मुश्किल हुई
नन्हे मोजों को पड़ेगी ऊन कम
आ रही है फिर ख़ुशी, मुश्किल हुई
रोज़ थोड़े हम पुराने हो चले
रोज़ ही कुछ फिर नयी मुश्किल हुई
जो सलीका बज़्म का आया हमें
बात करनी और भी मुश्किल हुई
और सब मंजूर थी दुशवारियां
जब ग़ज़ल मुश्किल हुई, मुश्किल हुई।
- विनीत अग्रवाल
खोल दो !
फिर मेरे सामने है
क्योंकि अब वो मुझे
अपनी जंजीरों में जकड़ना चाहते हैं
मेरी उड़ान मंजूर है उन्हें
मगर वो उसकी दिशा बदलना चाहते है
मेरी आहटों का जिक्र भी भाता है उन्हें
और मेरे कदम बढ़ाने पर भी वो ऐतराज जताते है
उनकी मीठी सी बातों में एक तीखा सा पन है
छलकती सी आँखें छल का दर्पण है
सब कुछ छिपा कर जाने क्या बताना चाहते हैं
मेरे जवान दिल में बैठे बचपने को
वो हर रोज बहकाना चाहते है
मेरी बातों की तफसील से मतलब नहीं उन्हें
मेरे बदन की तासीर को आजमाना चाहते हैं
जो नाम हिमानी है
उसमे वो क्या आग जलाएंगे
बर्फ की इस नदी को कितना पिघलायेंगे
बारिश तो ठीक है मगर
बाढ़ का कहर क्या वो सह पाएंगे
सवाल उनके भी हैं सवाल मेरे भी
मैं वि्श्वास करने में यकीं रखती हूँ
उनके सवालों में है शक के घेरे भी
देखें अब हम
भाग खड़े होंगे वो
या इन हालातों को सुलझाएंगे???
- हिमानी दीवान
Monday, November 15, 2010
अपर्णा भटनागर का परिचय
अपर्णा जी का जन्म 6 अगस्त 1964 को जयपुर (राजस्थान) मे हुआ। इन्होने हिंदी और अंग्रेजी मे परास्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। अभी का निवास-स्थान अहमदाबाद (गुजरात) मे है। इन्होने 2009 तक दिल्ली पब्लिक स्कूल मे हिंदी विभाग मे कोआर्डिनेटर पद पर कार्य किया है। मनुपर्णा के नाम से भी लिखने वाली अपर्णा पिछले कुछ समय से अंतर्जाल के साहित्यिक परिवेश मे सक्रिय हुई हैं और इनकी रचनाएँ कई अन्य जगहों पर भी प्रकाशित हैं। एक काव्य-संग्रह ’मेरे क्षण’ भी प्रकाशित हुआ है।
यहाँ प्रस्तुत उनकी कविता अनगिनत समस्याओं से घिरे हमारे विश्व को एक नये आशावादी नजरिये से परखने की कोशिश करती है और दुनिया के लिये जरूरी तमाम खूबसूरत चीजों के बीच जीवन के बचे रहने की उत्कट इच्छा को स्वर देती है।
सम्पर्क: 23, माधव बंग्लोज़ -2, मोटेरा, अहमदाबाद (गुजरात)
क्या अंत टल नहीं सकता ?
देखती हूँ कई झरोखे सानिध्य के
खुले हैं
अनजाने प्रेम की हवाएं बहने लगी हैं
खोखली बांसुरियों ने बिना प्रतिवाद के
घाटियों की सुरम्य हथेलियों में
सीख लिया है बजना ..
मछलियाँ सागर की लहरों पर
फिसल रही हैं
उन्मत्त
कि मछुआरों ने समेट लिए हैं जाल !
अपने चेहरों पर सफ़ेद पट्टियाँ रंगे
कमर पर पत्ते कसे
जूड़े में बाँस की तीलियाँ खोंसे
युवा-युवतियों ने तय किया है
इस पूर्णिमा रात भर नृत्य करना ...
माँ अपने स्तन से बालक चिपकाये
बैठी है चुपचाप
आँचल में ममता के कई युग समेटे ..
अचानक खेत जन्म लेने लगे हैं
गाँव किसी बड़े कैनवास पर
खनक रहे हैं ..
शहरों का धुआँ
चिमनियों में लौट गया है
अफगनिस्तान में ढकी आतंकी बर्फ पिघल रही है
सहारा के जिप्सी पा चुके हैं नखलिस्तान
साइबेरिया के निस्तब्ध आकाश में पंख फैलाये उड़ रहे हैं रंगीन पंछी
लीबिया की पिचकी छाती
धड़क रही है साँसों के संगीत से
उधर दूर पश्चिम में सूरज तेज़ी से डूब रह है
अतल सागर रश्मियों में
और दरकने लगा है पूर्णिमा का चाँद
कांच की किरिच-किरिच ..
लपक कर एक बिजली कौंधती है ..
आह ! क्या अंत टल नहीं सकता ?
- अपर्णा भटनागर
टुकड़ा-टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई
टुकड़ा टुकड़ा वक़्त चबाती तनहाई
यादों की फेहरिस्त बनाती तनहाई
बीते दुःख को फिर सहलाती तनहाई
रात के पहले पहर में आती तनहाई
सुबह का अंतिम पहर मिलाती तनहाई
सन्नाटा रह रह कुत्ते सा भौंक रहा
शब पर अपने दांत गड़ाती तनहाई
यादों के बादल टप टप टप बरस रहे
अश्कों को आँचल से सुखाती तनहाई
खुद से हँसना खुद से रोना बतियाना
सुन सुन अपने सर को हिलाती तनहाई
जीवन भर का लेखा जोखा पल भर में
रिश्तों की तारीख बताती तनहाई
सोचों के इस लम्बे सफ़र में रह रह कर
करवट करवट मन बहलाती तनहाई
-प्रेमचंद सहजवाला
Sunday, October 31, 2010
Wednesday, October 27, 2010
Savera
देखो बच्चों हुआ सवेरा !
आया मीठी हवा का फेरा,
चिड़ियों ने फिर छोड़ा बसेरा !
जागो बच्चों अब मत सोओ,
इतना सुन्दर समय न खोओ !
Wednesday, January 20, 2010
गनेशी कथा
गर्दन तक दलदल में धसा हुआ
इतिहास के गाढ़े धुंधलके में खो गया है गनेशी
हर नई व्यवस्था के नाम
मत पत्रों का पर्याय हो गया है गनेशी
गनेशी आन्दोलन है-शब्द है
लुटने-खसोटने को हरिजन की बेटी-सा
गनेशी उपलब्ध है।
गनेशी नारा है-झंडा है
उर्वरा मुर्गी है - सोने का अंडा है
महलों की नीव के लिये गनेशी मिटटी है, गारा है
रोँआ-रोंआ कर्ज में डूबा, उफ! गनेशी कितना बेचारा है।
थकी जिंदगी का दर्द पीता
काली किताब का मार्मिक अध्याय हो गया है गनेशी
वक़्त की मार से झुका हुआ
हरी घाटी में पानी-सा रुका हुआ
बदबू करता है, सड़ता है गनेशी
आँखों में किस्किरी-सा गड़ता है गनेशी
रोशनी में अंधेर हो गया है गनेशी।
सूरज-सा निकलेगा गनेशी
लावा-सा एक दिन पिघलेगा गनेशी
अन्दर-ही-अन्दर सुलगता- बुदबुदाता
बारूद का ढेर हो गया है गनेशी।
........अजामिल