Wednesday, January 20, 2010

गनेशी कथा

चारों ओर से कोहरे में फंसा हुआ
गर्दन तक दलदल में धसा हुआ
इतिहास के गाढ़े धुंधलके में खो गया है गनेशी
हर नई व्यवस्था के नाम
मत पत्रों का पर्याय हो गया है गनेशी

गनेशी आन्दोलन है-शब्द है
लुटने-खसोटने को हरिजन की बेटी-सा
गनेशी उपलब्ध है।
गनेशी नारा है-झंडा है
उर्वरा मुर्गी है - सोने का अंडा है
महलों की नीव के लिये गनेशी मिटटी है, गारा है
रोँआ-रोंआ कर्ज में डूबा, उफ! गनेशी कितना बेचारा है।

थकी जिंदगी का दर्द पीता
काली किताब का मार्मिक अध्याय हो गया है गनेशी

वक़्त की मार से झुका हुआ
हरी घाटी में पानी-सा रुका हुआ
बदबू करता है, सड़ता है गनेशी
आँखों में किस्किरी-सा गड़ता है गनेशी
रोशनी में अंधेर हो गया है गनेशी।

सूरज-सा निकलेगा गनेशी
लावा-सा एक दिन पिघलेगा गनेशी
अन्दर-ही-अन्दर सुलगता- बुदबुदाता
बारूद का ढेर हो गया है गनेशी।

........अजामिल

No comments:

Post a Comment