रमकलिया की जात न पूंछो
कहाँ गुजारी रात न पूंछो
नाक पोंछ्ती, रोती गाती
धान रोपती, खेत निराती
भरी तगारी लेकर सिर पर
दो-दो मंजिल तक चढ़ जाती
श्याम सलोनी रामकली से
कोठे की रमकलियाबाई
बन जाने की बात न पूंछो।
बोल-चल में सीधे-साधे
लेकिन मन में स्याह इरादे
खरे-खरों की बातें खोटी
अंधियारों में देकर रोटी
आटे जैसा वक्ष गूंथने-
वाले किसके हाथ न पूंछो।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई
हों या ना हों भाई-भाई
रमकलिया पर सबकी आँखें
सभी एक बरगद की शाखें
इस बरगद की किस शाखा में
कितने-कितने पात न पूंछो।
रोज-रोज मरती जी जाती
आंसू पीकर भी मुस्काती
रमकलिया के बदले तेवर
नई साड़ियाँ, महंगे जेवर
बेचारी क्या खोकर पाई
यह महंगी सौगात न पूंछो।
पूछ लिया तो फंस जाओगे
लिप्त स्वयं को भी पाओगे
रमकलिया के हर किस्से में
उसके दुख के हर हिस्से में
अपना भी चेहरा पाओगे
सिर नीचा कर बंद रखो मुंह
खुल जाएगी बात न पूंछो।
रमकलिया तो परंपरा है
उसकी कैसी जात-पांत जी
परंपरा में गाड़े रहिये
अपने तो नाखून, दांत जी
सोने के हैं दांत आपके
उसकी तो औकात ना पूंछो।
रमकलिया की जात न पूंछो
कहाँ गुजारी रात न पूंछो।
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