कभी-कभी तो मेरे घर भी आया कर।
तू ही एक नहीं है दुनिया में आलिम,
अपने फ़न पर न इतना इतराया कर।
औरों के चिथड़े दामन पर नज़रें क्यूं,
पहले अपनी मैली चादर धोया कर।
लोग देखकर मुंह फेरेंगे झिड़केंगे,
सरेआम ग़म का बोझा न ढोया कर।
वक़्त लौट कर चला गया दरवाजे से,
ऐसी बेख़बरी से अब न सोया कर।
मैंने तुमसे कुछ उम्मीदें पाल रखी हैं,
और नहीं तो थोड़ा सा मुसकाया कर।
नीचे भी तो झांक जरा ऐ ऊपर वाले,
अपनी करनी पर तो कुछ पछताया कर।
रात-रात भर तारे गिनते रहते हो,
चैन मिलेगा मेरी ग़ज़लें गाया कर।
:- महेंद्र वर्मा
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