ऐ थके हारे समंदर तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं .
साहिलों को तोड़ के बाहर निकलता क्यों नहीं
तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं
तेरे साहिल पर सितम की बस्तियाँ आबाद हैं,
शहर के मेमार’ सारे खानमाँ-बरबाद’ हैं
ऐसी काली बस्तियों को तू निगलता क्यों नहीं
तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं
तुझ में लहरें हैं न मौज न शोर..
जुल्म से बेजार दुनिया देखती है तेरी ओर
तू उबलता क्यों नहीं
तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं
ऐ थके हारे समंदर
तू मचलता क्यों नहीं
तू उछलता क्यों नहीं
ब्लॉग कानपुर मासिक पत्रिका से साभार.....
जब यही समंदर जोश में आता है तो सब निगल जाता है। पर यह भारतीय जनता जैसा समंदर है जो न मचलता है न उछलता है, ऐ थके हारे समंदर.... बेहतरीन
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