Friday, March 15, 2013

गीत !

धुंधली पड़ गईं भित्तिचित्र की लकीरें,
फिर भी, वह छुअन वही है!

एक परस वीणा के तारों को
सहलाकर भरता झंकार!
दूसरा मिटाता है, तटवर्ती
बना हुआ पूरा संसार !

बर्फीली जकड़न से कसी हुई जंजीरें,
फिर भी, वह तपन वही है!

संज्ञाएँ सर्वनाम अर्थहीन
संयोजित वाक्य गया टूट !
अनकही कहानी का दंश महज,
रहा और रह गया अटूट !

घाटी के पार कहीं गूँज रहीं मंजीरें-
थपक वही,गमक वही,चुभन वही है!!

रविकेश मिश्र, बगहा ।

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