Friday, September 21, 2012

हर चीख की मुखालफत में !

बिकने बिकाने की इस चमकदार दुनिया में
मछली की तरह सड़ने से बेहतर है
हर चीख की मुखालफत में
सच को ज़ोरदार तरीके से कहा जाए
देखिएगा खोटे सिक्के इस तरह
खुद ब खुद चलन से बाहर हो जायेगे . .अजामिल


काहें को ब्याही बिदेस !


काहें को ब्याही बिदेस अरे लाखिया बाबुल मोहे...
काहें को ब्याही बिदेस
हम तो बाबुल तोरे खूंटे की गइया...जहाँ कहोगे बंध जाएँ..
भैया को दीन्हों बाबुल महला दू महला...हमका दीन्हो परदेस
अरे लाखिया बाबुल मोहे...काहें को ब्याही बिदेस....
...
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ..घर घर मांगे हीं जाए...
हम तो बाबुल तोरे पिंजरे की चिरिया ..कुहुक कुहुक रोती जाए..
अरे लाखिया बाबुल मोहे...काहें को ब्याही बिदेस..
--
हज़रात आमिर खुसरो

Thursday, September 20, 2012

एक व्रत आज रख लें !

तीज व्रत कर के उठी श्रीमती जी ने चरण स्पर्श किया!
कहा प्राणाधार आशीष दें
मैने कहा एक कल रखा था शिव के नाम
एक व्रत आज रख लें!
तिलमिला कर व्रत के पीडा को भूल कर
उन्होने मुझको तेज नजरों से निहारा
गोया किसी गरीब मनुष्य ने नहीं
ऐलियन ने हो उनको प्रेम से पुकारा
मुस्कुरा कर कहा ए जी क्या आप नहीं देखना चाहते मुझको स्वस्थ
क्या हुआ मेरे प्रियतम आपको क्या आपका दिमाग कहीं है व्यस्त
पहले तो मेरे व्रत से ज्यादा व्रत के पारण पर ध्यान लगाते थे
सुबह चने की घुघनी तो कभी जलेबी दूध ले कर आते थे
मैने अखबार से दृष्टी उठाई समझाया कि हे!! लक्ष्मीबाई
वीरांगना हो और हो गृह के हर कार्य मे दक्ष
क्या नहीं चाहती हो घर के बजट को वह सुचारु चले
सब्सीडी के है छह सिलेण्डर वह वाकई साल भर चले!
तभी कहीं दूर किसी कुक्कुर ने जोर से आवाज लगाई
परम विदुषी ने कहा तो दिग्विजयवा की सफ़ाई आई
इस सिलेण्डर के आग मे तो मनमोहन अब जलेगा
ममतामई के आगे अब वह घुटने के बल चलेगा
मेरे न खाने से यदि बचतें हो तुम्हारे सिलेण्डर तो
लो मैं जाती हू मायके अपने संभालो ये चक्कर
मैने प्रणतभाव से अखबार को संभाला और कहा
मैने बस राय दी थी कोई अमल करने को थोडे ही कहा था
तुम ही मेरी बसन्त हो तुम ज्ञान मे भी अनन्त हो!
सच मे देखॊ ममता मयी जोर लगा रही है
कांग्रेस शासित प्रदेशॊं मे नौ सिलेण्डर दिलवा रही है!
छोडो इस बेकार के चक्कर को और जरा एक दो दाना शक्कर दो
चाय आज थोडी फ़ीकी लग रही है!
तुम्हारी साडी और मुस्कान बहुत मीठी लग रही है!
अरे जरा पतिदेव को प्रसाद तो दो! शिव पूजा है तुमने
कुछ मुझे आशीर्वाद भी तो दो!
कनकलता मुस्कुराई हाथ मे दिया पेडे का टुकडा
और बच्चे के ओर रुख किया
मैने चैन की सांस ली और मन ही मन ये आस की
सुशील शिन्दे का बयान हो जाये सच
खत्म हो मेरे घर की मचमच!!
— BY अवध राम पाण्डेय

Monday, September 17, 2012

उन्होंने ने तब लिखा, हमने अब पढ़ा !

----------उन्होंने ने तब लिखा
हमने अब पढ़ा ---------
----------------------- जब भी उनको पढते हैं
खुद से सवाल करते हैं
------------------ क्या उन्होंने तभी हमारा
...मन पढ़ लिया था -------------
-------------या अपनी रूह का एक टुकड़ा हममें बसा गई वो
पर हर किसी को इमरोज नहीं मिलते ----
----------इसके लिये अमृता होना पड़ेगा --और वो
एक ही थी बेमिसाल ---
मै -----
-----------
आसमान जब भी रात का
और रोशनी का रिश्ता जोड़ते हैं
सितारे मुबारकबाद देते हैं
क्यों सोचती हूं मैं
अगर कहीं .........
मै , जो तेरी कुछ नहीं लगती

जिस रात के होठों ने कभी
सपने का माथा चूमा था
सोच के पैरों में उस रात से
इक पायल सी बज रही है ...

इक बिजली जब आसमान में
बादलों के वर्क उलटती है
मेरी कहानी भटकती है ...
आदि ढूंढती है, अंत ढूंढती है ....

तेरे दिल की एक खिड़की
जब कहीं बज उठती है
सोचती हूं ,मेरे सवाल की
यह कैसी जुर्रत है !

हथेलियों पर
इश्क की मेहँदी का कोई दावा नहीं
हिज्र का एक रंग है
और तेरे ज़िक्र की एक खुशबू .......

मै , जो तेरी कुछ नहीं लगती

-अमृता प्रीतम



Sunday, September 2, 2012

माँ ! मैं एक बार फिर बच्चा होना चाहता हूँ !!

Photo: <span title=

साभार - भोजपुरी रंगमंच

ज़िन्दगी ह कि पानी !

ज़िन्दगी कि पानी

समय के अन्जान जाल मे, रोज़ औरी उल्झत बानी
कागज़ के तनी मनी टुकी खातीर, खुद के बेचले बानी
दुनिआ मे जन्हा देख तानी, अकेले ही लवुक तानी
हाथ से औरी तेजे निकलल, जब जब धयीले बानि
ईहे बुझ पईनी आजो, ज़िन्दगी कि पानी

कबो प्रेम कबो बैर, कबो सुख कबो चैन
कबो हमार कबो तोहार, कबो तीज कबो त्योहार
कबो घर कबो परिवार, कबो रिश्ता कबो व्यव्हार
एह दलदल मे अन्दर और अन्दर धन्सल जा तानी
ईहे बुझ पईनी, ज़िन्दगी कि पानी

कबो राह के कोसनी, कबो अपना के दोष देनी
कबो रात भर जगनी कबो, कबो मन भर सुतनी
जौन पावे के सपना रहे, ओकरा के एक पल मे तुड़ानी
सफ़र करत उमीर केट्ल , अबहु ओही मोड़ पे खड़ा बानी
ईहे बुझ पईनी, ज़िन्दगी कि पानी

सब कहेला कि दुनिआ रन्गमन्च , हमनी के किरदार
काहे सबके माया होला, काहे होला जीत अवरु हार
काहे ना बहेला अपनापन के नदी पवित्रतता के बयार
काहे होला रोज़ लड़ाई, एकर उत्तर खोज तानी
ईहे बुझ पईनी, ज़िन्दगी कि पानी

बचपन मे सभे लवुके आपन, चाहनी तवने मीलल
मोह माया ऐसन घेरलस, चाहीं कुल्ही पावल
एहि बीच मे अपना के खो के, चाही किसमत लीखल
मुथी से जैसे बालु फिन्सले, खुशी बहाव तानी
ईहे बुझ पईनी, ज़िन्दगी कि पानी

तुडले टूटट नायीखे, राह कौनो सुझत नैखे
कैसे आपन बन्धन खोली, चाभी कौनो मिलत नैखे
अब जब ज़िन्दगी के राह मिलल, जीये के चाह जागल
आपन बाचल दीन के उन्गरी पे गीन तानी
ईहे बुझ पईनी, ज़िन्दगी कि पानी
हाथ से औरी तेजे निकलल, जब जब धयीले बानि
ईहे बुझ पईनी आजो, ज़िन्दगी कि पानी



माई, जब तक हमरा सर पे तोहरा आंचल के छाव रहे ..

जब हम जगनी
दुनिया में पहिला बार .
आंख के पलकन
के बीच से देखनी
ख़ूबसूरत संसार

तब शायद हमरा के
तू अपना गोदी में लेके
सहारा देके हमरा के
रखले रहलू
हमरा के अपना
ममता के छाव में
ओकरा उपर से रहे
तोहरा आंचल
के छाया ,

जेकरा भीतर
शायद भगवान के भी
अनुमति ना रहे
जे हमरा के
पुचकराश भा दुलारश
भला मौत के
का बिसात रहे ...

माई ..
सब तब तक
ही रहे .....
माई... जब तक
हमरा सर पे
तोहरा आंचल के छाव रहे ..



अपना महबूब के हम तारीफ का करी !

अपना महबूब के हम तारीफ का करी,
हर तारीफ के ई छोट बनवले बाड़ी.
बस हसीये के जान निकाल देली,
न जाने कहा से ई अदा पईले बाड़ी.

ईनका में न जाने कौन कशिश बा,
नयनन के जादू हमरा पर चलवले बाड़ी.
कुछ समझती हम ईनका के,
ओकरा पहिले ही होश उडवले बाड़ी.

आईना में जब देखेली अपना के,
आईना के भी शर्मशार कईले बाड़ी.
जुल्फन के लहरा के घटा में,
देख बारिश आज मंगवले बाड़ी.

अपना होठ्वा के आउरी गुलाबी कर के,
फेर हमरा पर ई नशा चढवले बाड़ी.
कौनो लायक न रहनी अब हम,
अईसन ई पागल बनवले बाड़ी.

कादुन चाँद होले सबसे खुबसूरत,
ई त उनको के भी पीछे छोडले बडी.
चाँद अपना नाम के याद करत बाड़े,
ऐ त ई उनका के बर्बाद कईले बाड़ी.।।

बारिश में भींजत उनका के देखनी जब !

बारिश में भींजत उनका के देखनी जब,
तब बारिश से जलन होखे लागल.
कईसे बचा ली उनका के ये बारिश से?
हर अंग के अब छुए लागल.

गौर से देखनी उनका चेहरा के जब,
एगो शंका मन में जनमे लागल.
मेघ के तरफ चेहरा उठा के बतियावत रहली,
हम सोचनी की मेघ के भी प्यार होखे लागल.

बारिश जब कुछ कम भईल,
फेर ठंढा समीर बहे लागल.
हमरा में खुद के छुपावे लगली,
तब काबू कईला के बाद भी दिल बहके लागल.

कुछ बूंद ऊनका चेहरा पर अभी भी रहे,
बुन्दवा दिल जरावे लागल.
जब हटईनी अपना हाथ से बूंद के हम,
ऊनकर चेहरा कयामत बरसावे लागल.

भींजल केश के साथ भींजल बदन,
दिल में अजबे आग लगावे लागल.
सोचनी अब कबो बारिश में भींजे ना देम,
तब तक मेघ फिर से बारिश बरसावे लागल..
-संजय


Coin Tuesday: The Mule

Aug. 3, 2010
Written by John Dale

The Mule, or, A Mildly Embellished Slice of Life:

"Coin question.”

I looked up. It was one of the photographers. Young guy.

“Coin question? What’s up?” I asked.

“What’s a mule?”

I filed my first response — too much Captain Obvious — away for later. He did say “coin question,” after all. I owed him a Serious Professional answer.

“It’s a coin with two sides that don’t match. Like if a Washington quarter obverse was put together with a Sacagawea dollar reverse.”

I wondered to myself: which coin brought this on?

I started checking through the coins in the Boston ANA Auction in my head. Mules, mules… there was that one pattern with the three dollar gold obverse and the Shield five cent obverse on the same nickel planchet, Judd-531A, by the numbers, and unique by the book… that thing was cool, but weird - seriously weird even by pattern coin standards. New nickname for the Judd-531A: the Lady Gaga.

Maybe it was something else. Another Shield nickel pattern, perhaps?

There was the one dated 1865 with a reverse that has no rays between the stars, the Judd-418. Shield nickels weren’t made for circulation until 1866, and the No Rays reverse didn’t come out to play until 1867, so the two sides didn’t go together. Was there a little Mint hanky-panky at work? Almost certainly, just like with the Lady Gaga.

Two possibilities. I had to ask:

“So which coin is it?”

“This Gobrecht dollar. I was working on the video and it was in the script.”

Gobrecht dollar? I checked the script. Oh, right. Lot 3284, the Judd-65. It pairs the no-stars obverse used on Judd-60 Gobrecht dollars with the no-stars reverse used on Judd-84 Gobrechts. Subtle, but definitely a mule.

I explained what made the Gobrecht dollar a mule. He got the general idea, if not the terminology.

“All right. I still don’t get why they call it a mule, though.”

City kid. It was time to break out the Captain Obvious. I smirked a bit as I slipped into the voice I usually reserve for non-precocious three-year-olds.

“Well, you see, when a horse and a donkey love each other very much…” […and the horse is a male and the donkey is a female, you get a hinny. – Noah]

“Oh, I gotcha.” He cracked up. Point for me.

He got in a parting shot, though. As he walked away, he muttered under his breath, just loud enough for me to hear, in true non-collector fashion:

“Coin weenies," he said. "What’ll they think of next?”

Coin Monday: To Be Continued?

Aug. 10, 2010
Written by John Dale

(As you will read below, which I will let JDB explain in more detail, the Heritage blog is going to be taking a sabbatical. It is only fitting that John be the one to sign off, for the time being at least, as he's held down the majority of the writing for the better part of the last year. For that, and for his continuing good work and insight in all the aspects of his work, he has my thanks, as do those of you who have read this blog over the last two years. Best, Noah.)

This will be the last time you see me in this space for a while.

The Heritage Auctions blog is going into mothballs, to be re-evaluated in a year. I’d love to see it come back, but since there are no guarantees and I’ll be waiting a year in the best case, I want to send this incarnation of the blog out in style.

One of my regrets is that in a year and a half of blogging for Heritage, I haven’t been able to make a decent Viking reference. Thus, today’s topic is this Norse-American Centennial medal, part of the Dr. and Mrs. Claude Davis Collection in Heritage’s ready-to-launch August 2010 Official ANA Auction in Boston. http://www.HA.com/1143

The Norse medal, as it is usually abbreviated, has an unusual place in U.S. numismatics. Unlike many medals of its time, it is fairly well-established as an object for mainstream coin collecting. I have described it as an “honorary commemorative” in Heritage catalogs, and the history of the Norse medal is closely knotted with the silver commemoratives of the same era.

In fact, those other commemoratives are the reason the Norse medal is a medal and not a coin.
Several different commemorative coin issues were being struck or authorized in 1925; coins dated 1925 include the Lexington-Concord, the Stone Mountain (Georgia), the California Diamond Jubilee, and the Fort Vancouver (Washington) Centennial, and the 1927 Vermont (or Battle of Bennington) commemorative was authorized the same year. Many more commemorative bills were filed, only to die in committee.

The 1925 Minnesota State Fair featured the Norse-American Centennial, a celebration of early Norwegian immigrants’ arrival to the U.S. in 1825 and subsequent Norwegian contributions to American life and culture. The sponsor of the bill that created the Norse medal was Ole Juulson Kvale, a U.S. Representative from Minnesota of Norwegian descent, who was elected to the House in 1923.

Kvale was well-placed to influence the business of commemorative coinage bills, as he served on the responsible House committee. Through his service, however, he must have been aware of the logjam of commemorative coin bills. To win passage, he made the Norse commemorative a medal instead of a coin. Kvale’s bill passed out of the House and eventually became law.

Norse medals are eight-sided with a Leif-Eriksson-before-longboat motif on the obverse and a longboat on the reverse. The design was by James Earle Fraser, who is better known as the creator of the Buffalo nickel. Medals were made on thin and thick planchets, the vast majority in silver like the present piece, but also 100 struck in gold, like this September 2002 offering.

To be continued...

चला था राह में कुछ सोच गहरी बात ऐ राही......

चला था राह में कुछ सोच गहरी बात ऐ राही......
सफ़र में साथ हैं कितने यहाँ कितने हीं साथी हैं......

कदम कुछ यूँ बढ़ाता मै, गिरा तो कोई थामेगा...
बचा लेगा मुझे ठोकर से कोई तो संभालेगा...

बहारों में थे कितने यार और कितने याराने थे...
पराया ना था कोई बस सभी अपने हीं अपने थे...

जो आई राह में आंधी नज़र ना कोई यार आया...
ना आखों में हीं आसू थे ना उनके दिल में प्यार आया...

गिराया जो मुकद्दर ने लगी ऐसी मुझे ठोकर...
कहा है जो चले थे साथ मेरी राह में होकर...

ये सिखा है ज़माने से यहाँ ना कोई अपना है..
सभी हैं यार मतलब के ये दुनिया एक धोखा है...

--
सुमन