देह की
देह में आहुति
ये कैसा होम है
इरोम शर्मिला
... बिखरी पड़ी हैं
अनगिन सूखी समिधायें
हवि होने
पर जाने
किस पल को ताकती
टोहती
बेबस हो
एक मूक बेचारगी
दिशाओं में फैली
जाने काल की किस
शुभ घड़ी की प्रतीक्षा
तुमसे एक विनती
मेरी सखी!!
अपनी देह में प्रज्ज्वलित
अग्नि नद की
सुर्ख़ धार
के रास्ते खोल दो
बरसों से ठंडे पड़े
अपनी गौरवगाथा में लीन
अनगिन नदी-नालो के लिये.......
मन को मथता पाठ....
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