जिंदगी भर
पिता ने
कवच बनकर
बेटे को सहेजा
लेकिन पुत्र
बस यही सोचता रहा
कि कब लिखी जाएगी
वसीयत मेरे नाम
और कोसता रहा
जन्मदाता पिता को
पुत्र ने
युवावस्था में जिद की
और बालहठ को दोहरा कर
फैल गया धुँए सा
लेकिन
संयमी पिता ने
गौतम बुद्ध की तरह शांत रहकर
अस्वीकृति व्यक्त की
और
कुछ देर शांत रहने के बाद
हाथ से रेत की तरह फिसलते
बेटे को देखकर
पिता ने कहा
मेरी वसीयत के लिए
अभी तुम्हें करना होगा
अंतहीन इंतजार
कहते हुए
पिता की आँखों में था
भविष्य के प्रति डर
और
पुत्र की आँखों का मर चुका था पानी
भूल गया था वह
पिता द्वारा दिए गए
संस्कारों की लम्बी श्रृंखला
यह जानते हुए भी
कि यूरिया खाद और
परमाणु युगों की संतानों का भविष्य
अनिश्चित है
फिर भी
वसीयत का लालची पुत्र राजू
नहीं जानना चाहता
अच्छे आचार-विचार, व्यवहार
और संस्कारों को मर्यादा में रखना
राजू
क्यों नालायक हो गए हो तुम
भूल गए
पिता ने तुम्हारे आँसुओं को
हर बार ओक में लिया है
और जमीन पर नहीं गिरने दिया
अनमोल समझकर
पिता के भविष्य हो तुम
तुम्हारी वसीयती दृष्टि ने
पिता की सम्भावनाओं को
पंगु बना दिया है
तुमने
मर्यादित दीवार हटाकर
पिता को कोष्ठक में बंद कर दिया
तुम्हारी संकरी सोच से
कई-कई रात
आँसुओं से मुँह धोया है उसने
तुम्हारी वस्त्रहीन इच्छाओं के आगे
लाचार पिता
संख्याओं के बीच घिरे
दशमलव की तरह
घिर जाता है
और महसूस करता है स्वयं को
बंद आयताकार में
बिंदु सा अकेला
जहाँ बंद है रास्ता निकास का
चेहरे के भाव से
देखी जा सकती है पिता के अंदर
मीलों लम्बी उदासी
और आँखों में धुंधलापन
तुम्हारी हर अपेक्षा
उसके गले में कफ सी अटक चुकी है
तुम पिता के लिए
एक हसीन सपना थे
जिसकी उंगली पकड़कर
जिंदगी को
जीतना चाहता था वह
पर
तुम्हारी असमय ढेरों इच्छाओं से
छलनी हो चुका है वह
और रिस रहा है लगातार
नल के नीचे रखी
छेद वाली बाल्टी की तरह
आज तुम
बहुत खुश हो
मैं समझ गया
तुम्हारी इच्छाओं की बेडियों से
जकड़ा पिता
आज हार गया तुमसे
और
लिख दी वसीयत तुम्हारे नाम
अब तुम
निश्चिंत होकर
देख सकते हो बेहिसाब हसीन सपने।
- सुधीर गुप्ता ’चक्र’
vartman jeevan ki darkti riston ki sunder prastuti
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