है हादसों की बस्ती, हर सांस कांपती है ।
बेचैन रूह फ़िर भी,खुशियां तलाशती है ।।
पथराई हुई आंखे,उम्मीद कर रही हैं ।
वो पत्थरों के दिल में, इक सांस खोजती हैं ।।
कोई नहीं सुनेगा फ़िर,चीख क्यों रही है।
तू रूह बन गई है, क्यों ज़िस्म ढूंढती है।।
दिल टूटकर बिख़र ही गया,कांच की तरह ।
वो कांच के टुकड़ों में, इक अक़्स देखती है ।।
दुनिया की भीड़ में कहीं, वजूद खो गया ।
वीरान गुलशनों में, अब आस खोजती है ।।
इंतेज़ार है कि कोई, आएगा हमज़ुबान
बेचैन आंखे अब तक, उसको तलाशती हैं ।।
#स्वरचित एवं मौलिक रचना
विनीता सिंह
सतना, मध्यप्रदेश
03/02//2021
No comments:
Post a Comment