१. प्रेम
मुझे तटस्थ नहीं रहने देता।
मैं पानी से
गन्ध से
अहसास से, उजास से
अदल से, अमल से
और
समय की अनंतता से बेहद प्रेम करता हूँ।
प्रेम, मुझे तटस्थ नहीं रहने देता।
२. शब्द
मेरे पास तुम्हें देने के लिए बस शब्द हैं
इन शब्दों के मायने बहुत है
और पंख
और सपने
और हौसले
इन शब्दों से ही जैसे बने हैं
मैं जानता हूँ
तुम्हारे लिए मेरे ये शब्द व्यर्थ हैं
क्योंकि
इनमें
तुम्हारे दुःख, आंसू, उदासी को
दुःख, आंसू, उदासी कहने का साहस नहीं है।
३. कविता
जैसे दूध पकता है धीरे-धीरे
तो उसकी मलाई दिखाई देने लगती है
वैसे ही पकती हुई कविता भी
धीरे-धीरे
दिखाने लगती है विचार
पर कविता को आंच पर नहीं पकाया जा सकता है
कविता आंच पर पकती ही नहीं
किसी भी आंच पर नहीं
कविता बूढ़े बरगद की कुम्हलाती छाँह में पकती है
कविता पकती है झुर्रियों की सलवटों में
कविता पकती है उदास आँखों की निरापद दूरी से
कविता पकती है बेसाख़्ता चिपचिपाहटों में लथपथ भरोसे की हत्या से
जब कविता पकती है
तो परिदृश्य में हरे, नीले और लाल रंग की बहुतायत होने लगती है
जब कविता पकती है
तो भेड़िये उसे सूंघते हुए आ जाते हैं
और विचार को नोच-नोच कर खा जाते हैं
कविता कहीं रास्ते में पड़ी छटपटाती है
लेकिन उसके प्राण नहीं निकलते
क्योंकि उसके प्राण लेकर कवि कहीं भाग गया है
ज़िन्दगी के मौसम में
बसंत सबसे छोटी ऋतु है और पतझड़ सबसे बड़ी
हमें थोड़ा सा खिलकर बहुत सारा झड़ जाना होता है।
मुझे तटस्थ नहीं रहने देता।
मैं पानी से
गन्ध से
अहसास से, उजास से
अदल से, अमल से
और
समय की अनंतता से बेहद प्रेम करता हूँ।
प्रेम, मुझे तटस्थ नहीं रहने देता।
२. शब्द
मेरे पास तुम्हें देने के लिए बस शब्द हैं
इन शब्दों के मायने बहुत है
और पंख
और सपने
और हौसले
इन शब्दों से ही जैसे बने हैं
मैं जानता हूँ
तुम्हारे लिए मेरे ये शब्द व्यर्थ हैं
क्योंकि
इनमें
तुम्हारे दुःख, आंसू, उदासी को
दुःख, आंसू, उदासी कहने का साहस नहीं है।
३. कविता
जैसे दूध पकता है धीरे-धीरे
तो उसकी मलाई दिखाई देने लगती है
वैसे ही पकती हुई कविता भी
धीरे-धीरे
दिखाने लगती है विचार
पर कविता को आंच पर नहीं पकाया जा सकता है
कविता आंच पर पकती ही नहीं
किसी भी आंच पर नहीं
कविता बूढ़े बरगद की कुम्हलाती छाँह में पकती है
कविता पकती है झुर्रियों की सलवटों में
कविता पकती है उदास आँखों की निरापद दूरी से
कविता पकती है बेसाख़्ता चिपचिपाहटों में लथपथ भरोसे की हत्या से
जब कविता पकती है
तो परिदृश्य में हरे, नीले और लाल रंग की बहुतायत होने लगती है
जब कविता पकती है
तो भेड़िये उसे सूंघते हुए आ जाते हैं
और विचार को नोच-नोच कर खा जाते हैं
कविता कहीं रास्ते में पड़ी छटपटाती है
लेकिन उसके प्राण नहीं निकलते
क्योंकि उसके प्राण लेकर कवि कहीं भाग गया है
ज़िन्दगी के मौसम में
बसंत सबसे छोटी ऋतु है और पतझड़ सबसे बड़ी
हमें थोड़ा सा खिलकर बहुत सारा झड़ जाना होता है।
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