Saturday, March 11, 2023
बोलती हुई औरतें ।
Thursday, October 14, 2021
सरस्वती पत्रिका “अप्रैल-जून 2021 | 101” में प्रकाशित रविनन्दन सिंह की कुछ रचनाएँ ।
१- हर प्रश्न का उत्तर समय
हर प्रश्न का उत्तर समय है,
समय की पदचाप सुनना
कुछ लोग होंगे जो तुम्हारी
प्रगति से ईर्ष्या करेंगे,
कुछ लोग होंगे,
पीठ पीछे व्यंग्य और ताने कसेंगे,
इस तरह संसार के भ्रम-
जाल में तुम मत उलझना।
जिन्दगी की राह में
कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे
जो तुम्हारी अस्मिता को
एकदम खारिज करेंगे,
मुस्करा कर सर झुकाना,
किन्तु मत परवाह करना।
सफर में धकने लगो तो
बैठ जाना छाँव में,
अपने हाथों आप ही
मरहम लगाना पाँव में,
तुम कभी विचलित न होना,
लक्ष्य का संधान करना।
एक दिन आएगा चलकर
जिन्दगी की राह में,
फिर वही सब जन तुम्हें
आकर भरेंगे बाँह में,
ग्रंथियों को त्यागकर
सबको सहज स्वीकार करना।
२- यह जीवन
वैसा जीवन नहीं मिला पर
यह जीवन भी अच्छा है।
इंद्रधनुषी सपने पाले
आधा जीवन गुजर गया,
जितना सोचा था आँचल में
उतना इच्छित मिला,
नंदन कानन नहीं मिला पर
यह कानन भी अच्छा है।
बड़ी बड़ी आशाएँ टूटीं
कई जंग में हार मिली,
फिर भी खड़ा हुआ पैरों पर
फिर कश्ती को धार मिली,
मन का आँगन नहीं मिला पर
यह आँगन भी अच्छा है।
प्रतिबिम्बों की बात मानकर
बिम्बों का शृंगार करे,
प्रतिदिन उसका रूप सँवारे
सपनों को साकार करे
ऐसा दरपन नहीं मिला पर
यह दरपन भी अच्छा है।
इस बारिश में साल रहा है
मन का सूनापन,
जैसे खौल रहा चूल्हे पर
तसले में अदहन,
मीत अगर है पास कहीं तो
यह सावन भी अच्छा है।
राजा की गोदी से उतरा
बन जाता है ध्रुवतारा,
एक गाय के लिए द्रोण भी
जाता है बस दुत्कार,
नहीं राजपद तो आचार्य का
यह आसन भी अच्छा है।
३- पूछ रहा शम्बूक राम से
पूछ रहा शम्बूक राम से
कैसी प्रभु की पीर।
जो कहते थे रामराज्य में
हिंसा-द्वेष नहीं होगा,
एक घाट पर सिंह मेमना
कोई भेद नहीं होगा,
सोने के चम्मच से राजन
जीम रहे हैं खीर।
सुशासन पर प्रवचन करते
कुशासन पर वास,
बगुलों को सम्मानित करते
हंसों को वनवास,
अपराधी की जाति पूछकर
चला रहे हैं तीर।
रंगमहल में होता उत्सव
जनता में सन्त्रास,
बहुत दिनों से डोल रहा है
सत्ता पर विश्वास,
तड़प रहे लोगों को केवल
बाँट रहे हैं धीर
राज-धर्म दोनों ने मिलकर
फेंका ऐसा जाल,
झूम रहे हैं भक्त नशे में
आश्रम मालामाल,
खींच रहे हैं दोनों मिलकर
जनमानस की चोर
प्रश्नचिह्न भी काँप गया
बाली के मारे जाने से,
सिय को अग्निपरीक्षा में
हर बार उतारे जाने से,
दृश्य देखकर जन-जन की
आँखों से बहता नीर।
४- पहले पहले पग धरना
जीवन में आसान बहुत है
बने हुए पथ पर चलना।
बहुत कठिन है नयी लीक पर
पहले पहले पग धरना।
बिना चुनौती जीवन क्या है
नन्हा अंकुर भी कहता,
मौसम के निर्मम प्रहार को
जीवन भर सहता रहता,
हार मानकर नहीं जानता
परदे के पीछे रहना।
पर्वत से सरिता निकली थी
ज्योंही अपने घर से,
अलसायी थी अभी राह में
जा टकराई पत्थर से,
धीरे धीरे सीख गयी वह
दुर्गम प्रान्तर से बहना।
अभी विहग ने पर खोला था
तेज हवा ने गिरा दिया,
उसका साहस देख पवन ने
फिर कंधे पर उठा लिया,
आज विहग तूफानों में भी
समझ चुका है थिर रहना।
ज्योहीं मैंने दीप जलाया
अँधियारे ने डरा दिया,
यद्यपि नन्हा सा दीपक था
लेकिन तम को हरा दिया,
मैंने भी अब सीख लिया है।
दीपक बाती सा जलना।
५- इतिहास की निमर्म कहानी
हर बार दुहराई गयी
इतिहास की निर्मम कहानी।
जिस नदी की धार थी
तूफान
से भी तीव्रतर,
एक समय ऐसा भी आया
वह नदी बहती है मंथर,
गुम हुई है आज वह भी
भूलकर अपनी रवानी।
वृक्ष तनकर आसमां से
बात करता था कभी,
एक बड़ा विस्तार पाकर
छाँव देता था कभी,
ठूंठ होकर आज वह भी
कह रहा दुनिया है फ़ानी।
बाज जो आकाश में
उड़ता था पाँखें खोलकर,
हुक्म देता आसमाँ को
शब्द भारी बोलकर,
घायल स्वरों में आज वह भी
माँगता है बूँद पानी।
वन को वह दिन याद है
जब सिंह ने दहला दिया,
आज जब घायल हुआ
साजिश सियारों ने किया,
दृश्य अपनी साँस रोके
देखती है रातरानी।
भग्न एक अवशेष की
भीतें हमेशा आह भरतीं,
वक्त का उन्नत किला भी
रोज कहता आपबीती,
जो खड़ा है वह गिरेगा
हो भले सिकंद सानी।
पूर्व सम्पादक 'हिन्दुस्तानी' शोध त्रैमासिक ।
प्रतिष्ठित लेखक, कवि एवं समीक्षक
ई-मेल singhravi.ald@gmail.com
मोबाइल : 09454257709
Wednesday, October 6, 2021
"मेरी बेटी"
Saturday, September 11, 2021
चरित्रहीन औरतें।
Monday, August 9, 2021
गजल !
कसम खाई यहाँ मैनें सभी को है जगाने की।
सुनहरे ख्व़ाब आँखों में पिरोने की सज़ाने की।
हमें रस्मों रिवाजों के न बाँधों बंधनों से तुम,
हमें है आरज़ू तारे फ़लक से तोड़ लाने की।
दिखे हर श़ख्क अपने आप में खोया हुआ बैठा,
नहीं फ़ुरसत ज़रा भी है इन्हें रिश्ते निभाने की।
यहाँ माता- पिता गुरु से हमें पहचान मिलती है,
उन्हें मत कोशिशें करना कभी भी आज़माने की।
खुलेंगे द्वार जन्नत के यहीं दहलीज़ के भीतर,
ज़रूरत है हमें घर के बुज़ुर्गों को हँसाने की।
नही सोंचा कभी मैंनें करूँ मैं राज दुनिया पर,
मगर है जुस्तजू मेरी दिलों में घर बनाने की।
ग़मों से ये "नवल" मेरा पुराना है बड़ा नाता,
वजह काफ़ी नहीं है क्या हमारे मुस्कराने की।
निशा सिंह "नवल" लखनऊ
स्त्री की खूबसूरती !
स्त्री की खूबसूरती का वर्णन सदियों से हुआ है
जब शब्द नहीं थे, ना ही रंगों से सजी चित्रकारी थी
तब भी पुरुष का स्त्री की प्रति सौंदर्य बोध व आकर्षण था...
फिर सभ्यता का विकास हुआ, गीत संगीत, काव्य और चित्रों का दौर शुरू हुआ....
अन्य विषयों के साथ स्त्री सौंदर्य हमेशा प्रमुख रहा
उसने नारी के केश सज्जा,
सुन्दर नयन व उजले रंग पर हमेशा जोर दिया है
क्यों कभी उस से ऊपर ना पहुंच सके तुम...
हे पुरुष!! तुम तो स्वयं को पौरुषता से परिपूर्ण समझते हो....
फिर क्यों स्त्री की लिए ये भौतिक मानदण्ड स्थापित किये?
क्या तुम्हे नहीं दिखी उसमे ममता प्रेम के साथ
नये सृजन को संभव करने की बहादुरी...
कैसे अनदेखा कर दिया उसका भी आखेट करना
वो लकड़ी बीनकर बच्चे पालना
और कृषि कार्य में प्रमुखता क्या दिखी नहीं??
उसमे भी थीं अपार संभावनाएं
ख़ुदको साबित भी किया उसने
कल्पना शीलता के साथ विज्ञान और दर्शन
के बीज उसमे भी थे...
गृह प्रबंधन, राजनीति से लेकर अंतरिक्ष तक उड़ान भरी .
फिर क्यों तुम हर गीत में सिर्फ उसके सुर्ख लबों और कपालों तक पहुंचे...
क्यों नहीं बॉलीवुड संगीत बना,
जिसमे उसके प्रबंधन या प्रशासकीय गुणों का वर्णन
खुले मन से किया हो...
क्या तुम्हे वो स्त्री खूबसूरत नहीं लगी, जिसने तर्क वितर्क में पुरुष को पीछे छोड़ा हो...
क्यों तुम उसके कपाल,
उरोज और पैमाने से मापे तन तक रहे....
क्यों नहीं बढ़ सके स्त्री देह से आगे..
क्यों नहीं पढ़ा उसके हुनर को...
क्यों नहीं टांक दीं वो बातें किसी तस्वीर में,
जो उसकी बुद्धिमता का प्रतीक हों...
यकीन मानो हर स्त्री को होगी तब ज्यादा खुशी
जब तुम उसे दैहिक सौंदर्य से परे समझोगे..
और जब तुम किसी खास मकसद से उसके बाह्य सौंदर्य की विवेचना करते हो...
तो वो तुम्हारा मन ताड़ लेती है...
© पूनम भास्कर 'पाखी '
एस0डी0एम0, सीतापुर (उ0प्र0)