आसमां का बरसना अभी बाक़ी है...
ज़मीं का उगना बाक़ी है...
बाक़ी है कहानी में कहानी की कहानी...
बात की बात करनी बाक़ी है...
क्या-क्या गुज़र चुका है अब तलक़....
क़तार में खड़ा बाक़ी अभी बाक़ी है...
वक़्त के कठघरे में वक़्त की पेशी बाक़ी है ...
और ख़त्म होने से पहले
अंजाम भी अपना अंजाम देखना चाहता है...
ये ख्वाहिशों की ख्वाहिशें कभी पूरी हो सकेंगी...
या रह जाएगी बाक़ी दास्तां हर कहानी की...
Wednesday, December 14, 2011
Saturday, December 10, 2011
उपेक्षा !
जागी उकताई रात ने
पैदा किया एक और
आवारा सूरज
भौर से संध्या तक
भटकता - झुलसता रहा ,
कोण बदल बदल कर,
देखता रहा धरा को,
शायद कही ....
छाँव मिल जाय
प्यार मिल जाय
पनाह मिल जाय
प्यार-छांह-पनाह तो दूर
किसी ने एक दृष्टि ना दी आभार में,
हर कोई उपभोग करता रहा
रोशनी का
पर किसी ने झाँका तक नहीं
सूरज क़ी ओर,
उपेक्षा क़ी आग लिए सीने में
जलाता रहा दिन भर,
जब घिन्न आने लगी
थोथे स्वार्थी संबंधों पर
डूब मरा समंदर में जाकर कही
और रात ..........
फिर से गर्भवती हो गई
*
विनय के.जोशी
पैदा किया एक और
आवारा सूरज
भौर से संध्या तक
भटकता - झुलसता रहा ,
कोण बदल बदल कर,
देखता रहा धरा को,
शायद कही ....
छाँव मिल जाय
प्यार मिल जाय
पनाह मिल जाय
प्यार-छांह-पनाह तो दूर
किसी ने एक दृष्टि ना दी आभार में,
हर कोई उपभोग करता रहा
रोशनी का
पर किसी ने झाँका तक नहीं
सूरज क़ी ओर,
उपेक्षा क़ी आग लिए सीने में
जलाता रहा दिन भर,
जब घिन्न आने लगी
थोथे स्वार्थी संबंधों पर
डूब मरा समंदर में जाकर कही
और रात ..........
फिर से गर्भवती हो गई
*
विनय के.जोशी
दुनिया बदल रही है....
खुद से टकराया
गिरा
और मर गया
मौत अजीब थी
लेकिन
आगे की दास्तां और भी अजीब है
अपने ही लाश के पास बैठा
वो शख़्स देर तलक़
फूट-फूटकर रोता रहा...रोता रहा
और जब थक गया
तो
उसका जनाज़ा सजाने लगा
फिर कब्र खोदा
और ख़ुद की लाश को
दफ़न कर दिया
आंखों में सूनापन लिए
भटक रहा है
इस शहर में
कभी-कभी शहर का शोर
उसके जेहन तक उतरता हो शायद
और धीरे-धीरे
उसकी आंखों से निकला सूनापन
शहर में फैलता जा रहा है
नतीज़ा किसको पता है?
हां कुछ लोग
ज़रूर ख़ुद से टकरा रहे हैं
हां कुछ वैसे ही मरे जा रहे हैं
और अपने कंधों पर
अपनी लाशों को उठाए
शहरवालों की तादाद
गुजरते दिन के साथ
बढ़ती जा रही है
धीरे-धीरे
सूनापन
बढ़ता जा रहा है
जेहन में....शहर में... हर कहीं
कहते हैं...
दुनिया बदल रही है......
गिरा
और मर गया
मौत अजीब थी
लेकिन
आगे की दास्तां और भी अजीब है
अपने ही लाश के पास बैठा
वो शख़्स देर तलक़
फूट-फूटकर रोता रहा...रोता रहा
और जब थक गया
तो
उसका जनाज़ा सजाने लगा
फिर कब्र खोदा
और ख़ुद की लाश को
दफ़न कर दिया
आंखों में सूनापन लिए
भटक रहा है
इस शहर में
कभी-कभी शहर का शोर
उसके जेहन तक उतरता हो शायद
और धीरे-धीरे
उसकी आंखों से निकला सूनापन
शहर में फैलता जा रहा है
नतीज़ा किसको पता है?
हां कुछ लोग
ज़रूर ख़ुद से टकरा रहे हैं
हां कुछ वैसे ही मरे जा रहे हैं
और अपने कंधों पर
अपनी लाशों को उठाए
शहरवालों की तादाद
गुजरते दिन के साथ
बढ़ती जा रही है
धीरे-धीरे
सूनापन
बढ़ता जा रहा है
जेहन में....शहर में... हर कहीं
कहते हैं...
दुनिया बदल रही है......
Subscribe to:
Posts (Atom)